पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/५१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

शांकरभाष्य अध्याय २ तत् एतत् अविशेषेण विदुषः सर्वक्रियासु सुतरां ज्ञानीका कमों में अधिकार नहीं है यह कर्तृत्वं हेतुकर्तृत्वं च प्रतिषेधति भगवान् विदुषः दिखाने के लिये भगवान् 'वेदाविनाशिनम्' 'कथं स कर्माधिकाराभावप्रदर्शनार्थ 'वेदाविनाशिनम्' पुरुषा' इत्यादि वाक्योंसे सभी क्रियाओंमें समान भावसे विद्वान्के कर्ता और प्रयोजक कर्ता होनेका 'कथं स पुरुषः' इत्यादिना । प्रतिषेध करते हैं। क्क पुनः विदुषः अधिकार इति एतत् उक्तं ज्ञानीका अधिकार किसमें है ? यह तो पूर्वम् एव 'ज्ञानयोगेन सांख्यानाम्' इति । तथा 'ज्ञानयोगेन सांख्यानाम् इत्यादि वचनोंद्वारा पहले च सर्वकर्मसंन्यासं वक्ष्यति 'सर्वकर्माणि मनसा' सर्वकर्माणि मनसा' इत्यादि वाक्योंसे सर्व कर्मोका ही बतलाया जा चुका है वैसे ही फिर भी इत्यादिना। संन्यास ( भगवान् ) कहेंगे। ननु मनसा इति वचनात् न वाचिकानां पू०-(उक्त श्लोकमें) 'मनसा' यह शब्द है, कायिकानां च संन्यास इति चेत् । इसलिये मानसिक कर्मोंका ही त्याग बतलाया है, शरीर और वाणीसम्बन्धी कर्मोका नहीं । न, सर्वकर्माणि इति विशेषितत्वात् । उ०-यह कहना ठीक नहीं। क्योंकि 'सर्व कोंको छोड़कर इस प्रकार कर्मों के साथ 'सर्व' विशेषण है। मानसानाम् एव सर्वकर्मणाम् इति चेत् । पू०-यदि मनसम्बन्धी सर्व कर्मों का त्याग मान लिया जाय तो? मनोव्यापारपूर्वकत्वात् वाकाय- उ०-ठीक नहीं है क्योंकि वाणी और शरीरकी व्यापाराणां मनोव्यापाराभावे तदनुपपत्तेः । क्रिया मनोव्यापारपूर्वक ही होती है। मनोव्यापार- के अभावमें उनकी क्रिया बन नहीं सकती। शास्त्रीयाणां वाकायकर्मणां कारणानि o-शास्त्रविहित कायिक-वाचिक कोंके कारण- मानसानि वर्जयित्वा अन्यानि सर्वकर्माणि रूप मानसिक कर्मोके सिवा अन्य सब कर्मोंका मनसे मनसा संन्यसेत् इति चेत् । संन्यास करना चाहिये-यह मान लिया जाय तो ? न, न एव कुर्वन् न कारयन् इति विशेषणात् । उ०-ठीक नहीं। क्योंकि 'न करता हुआ और न करवाता हुआ यह विशेषण साथमें है (इसलिये तीनों तरहके कर्मोका संन्यास सिद्ध होता है)। सर्वकर्मसंन्यासः अयं भगवता उक्तो पू० -यह भगवान्द्वारा कहा हुआ सर्व कर्मोंका मरिष्यतो न जीवत इति चेत् । संन्यास तो मुमूर्षके लिये है, जीते हुएके लिये नहीं, यह माना जाय तो? न, नवद्वारे पुरे देही आस्ते, इति विशेषणा- 3०-ठीक नहीं । क्योंकि ऐसा मान लेनेसे नुपपत्तेः। 'नौ द्वारवाले शरीररूप पुरमें आत्मा रहता है। इस विशेषणकी उपयोगिता नहीं रहती। न हि सर्वकर्मसंन्यासेन मृतस्य तदेहे कारण, जो सर्वकर्मसंन्यास करके मर चुका है, उसका न करते हुए और न करवाते हुए उस आसनं संभवति अकुर्वतः अकारयतः च । शरीरमें रहना सम्भव नहीं ।