पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/५३

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शांकरभाष्य अध्याय २ ३७ तथा न एनं दहति पावकः अग्निः अपि न वैसे ही अग्नि इसको जला नहीं सकता अर्थात् भसीकरोति। अग्नि भी इसको भस्मीभूत नहीं कर सकता। तथा न एनं क्लेदयन्ति आपः । अपां हिसावयवस्य जल इसको भिगो नहीं सकता। क्योंकि सावयव वस्तुन आभावकरणेन अवयवविश्लेषापादने वस्तुको ही भिगोकर उसके अंगोंको पृथक्-पृथक् कर देनेमें जलकी सामर्थ्य है। निरवयव आत्मामें सामर्थ्य तत् न निरवयवे आत्मनि संभवति । ऐसा होना सम्भव नहीं । तथा स्नेहवत् द्रव्यं स्नेहशोषणेन नाशयति उसी तरह बायु आई द्रव्यका गीलापन शोषण करके उसको नष्ट करता है अतः वह वायु वायुः एनं स्वात्मानं न शोषयति मारुतः भी इस स्व-स्वरूप आत्माका शोषण नहीं कर अपि ॥२३॥ सकता ॥२३॥ थत एवं तस्मात्- ऐसा होनेके कारण अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमल्लद्योऽशोष्य एव च । नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः ॥ २४॥ यसात् अन्योन्यनाशहेतूनि भूतानि एनम् ( यह आत्मा न कटनेवाला, न जलनेवाला, न आत्मानं नाशयितुं न उत्सहन्ते । गलनेवाला और न सूखनेवाला है ) । आपसमें एक तस्मात् दूसरेका नाश कर देनेवाले पञ्चभूत इस आत्माका नाश नित्यः । करनेके लिये समर्थ नहीं हैं । इसलिये यह नित्य है । नित्यत्वात् सर्वगतः सर्वगतत्वात् स्थाणुः नित्य होनेसे सर्वगत है। सर्वव्यापी होनेसे स्थाणुः इव स्थिर इति एतत् । स्थिरत्वात् अचलः स्थाणु है अर्थात् स्थाणु (हूँठ) की भाँति स्थिर है । स्थिर होनेसे यह आत्मा अचल है और इसीलिये अयम् आत्मा अतः सनातनः चिरंतनो न सनातन है अर्थात् किसी कारणसे नया उत्पन्न नहीं कारणात् कुतश्चित् निष्पन्नः अभिनव इत्यर्थः । हुआ है। पुराना है। न एतेषां श्लोकानां पौनरुक्त्यं चोदनीयम् ।। इन श्लोकोंमें पुनरुक्तिके दोषका आरोप नहीं यत एकेन एव श्लोकेन आत्मनो नित्यत्वम् | करना चाहिये, क्योंकि 'न जायते म्रियते वा' इस अविक्रियत्वं च उक्तम् 'न जायते म्रियते वा' इत्या- निर्विकारता तो कही गयो, फिर आत्माके विषयों एक श्लोकके द्वारा ही आत्माको नित्यता और दिना । तत्र यत् एव आत्मविषयं किंचित् उच्यते जो भी कुछ कहा जाय वह इस श्लोकके अर्थसे तत् एतस्मात् श्लोकार्थात् न अतिरिच्यते अतिरिक्त नहीं है । कोई शब्दसे पुनरुक्त है और । किंचित् शब्दतः पुनरुक्तं किंचित् अर्थत इति ! कोई अर्थसे ( पुनरुक्त है ) ।

दुर्योधत्वात् आत्मवस्तुनः पुनः पुनः प्रसङ्ग परन्तु आत्मतत्त्व बड़ा दुर्बोध है--सहज ही समझ-

आपाय शब्दान्तरेण तत् एव वस्तु निरूपयति में आनेवाला नहीं है, इसलिये वारंवार प्रसंग उपस्थित करके दूसरे-दूसरे शब्दोंसे भगवान् वासुदेव उसी भगवान् वासुदेवः कथं नु नाम संसारिणाम् तत्त्वका निरूपण करते हैं, यह सोचकर कि किसी भी अब्यक्तं तवं बुद्धिगोचरताम् आपन्नं सत् तरह वह अव्यक्त तत्त्व इन संसारी पुरुषोंके बुद्धिगोचर संसारनिवृत्तये स्यात् इति ॥ २४ ॥ | होकर संसारकी निवृत्तिका कारण हो ॥२४॥