पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/५५

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शांकरभाष्य अध्याय २ तथापि तथाभाविनि अपि. आत्मनि त्वं तो भी अर्थात् ऐसे नित्य जन्मने और नित्य महाबाहो न एवं शोचितुम् अर्हसि, जन्मस्तो मरनेवाले आत्माके निमित्त भी हे महाबाहो ! तुझे इस प्रकार शोक करना उचित नहीं है। क्योंकि नाशो नाशवतो जन्म च इति एतौ अवश्यं जन्मनेवालेका मरग और मरनेवालेका जन्म, यह भाषिनौ इति ॥२६॥ दोनों अवश्य ही होनेवाले हैं ॥ २६॥ तथा च सति- ऐसा होनेसे- जातस्य हि ध्रुवो मृत्युध्रुवं जन्म मृतस्य च । तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि ॥ २७ ॥ जातस्य हि लब्धजन्मनो ध्रुवः अव्यभिचारी जिसने जन्म लिया है उसका मरण ध्रुव- मृत्युः मरणं ध्रुवं जन्म निश्चित है और जो मर गया है उसका जन्म ध्रुव-- निश्चित है, इसलिये यह जन्म-मरणरूप भाव अपरिहार्यः अयं जन्ममरणलक्षणः अर्थः तस्मिन् | अपरिहार्य है अर्थात् किसी प्रकार भी इसका प्रति- अपरिहार्ये अर्थे न त्वं शोचितुम् अर्हसि ॥ २७॥ कार नहीं किया जा सकता, इस अपरिहार्य विषय- के निमित्त तुझे शोक करना उचित नहीं ॥ २७ ॥ मृतस्य च तस्मात् कार्यकरणसंघातात्मकानि अपि भूतानि कार्य-करणके संघातरूप ही प्राणियोंको माने तो उद्दिश्य शोको न युक्तः कर्तुं यतः- उनके उद्देश्यसे भी शोककरना उचित नहीं है, क्योंकि- अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत । अव्यक्तनिधनान्येव तत्र का परिदेवना ॥२८॥ अव्यक्तादीनि अव्यक्तम् अदर्शनम् अनुप- अव्यक्त यानी न दीखना-उपलब्ध न होना ही लब्धिः आदिः येषां भूतानां पुत्रमित्रादिकार्य- जिनकी आदि है ऐसे ये कार्य-करणके संधातरूप करणसंघातात्मकानां तानि अव्यक्तादीनि भूतानि पुत्र, मित्र आदि समस्त भूत अव्यक्तादि हैं अर्थात् जन्मसे पहले ये सब अदृश्य थे। प्राक् उत्पत्तेः। उत्पन्नानि च प्राक् मरणात् व्यक्तमध्यानि उत्पन्न होकर मरणसे पहले-पहले बीचमें व्यक्त अव्यक्तनिधनानि एव पुनः अव्यक्तम् अदर्शनं हैं-दृश्य हैं । और पुनः अव्यक्त-निधन हैं, अदृश्य निधनं मरणं येषां तानि अव्यक्तनिधनानि होना ही जिनका निधन यानी मरण है उनको मरणात् ऊर्ध्वम् अपि अव्यक्तताम् एव प्रति- | अव्यक्त-निधन कहते हैं, अभिप्राय यह कि मरनेके पधन्ते इत्यर्थः। बाद भी ये सब अदृश्य हो ही जाते हैं। तथा च उक्तम्-'अदर्शनादापतितः पुन- ऐसे ही कहा भी है कि 'यह भूतसंघात शादर्शनं गतः । नासौ तव न तस्य त्वं वृथा | अदर्शनसे आया और पुनः अदृश्य हो गया। न वह तेरा है और न तू उसका है, व्यर्थ ही शोक का परिदेवना' ( महा० स्त्री० २ । १३ ) इति । किसलिये ?'