पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/६४

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श्रीमद्भगवद्गीता यथा लोके कूपतडागाद्यनेकसिन् उदपाने | जैसे जगत्में कूप, तालाब आदि अनेक छोटे- परिच्छिन्नोदके यावान् यावत्परिमाणः। छोटे जलाशयोंमें जितना स्नान-पान आदि प्रयोजन स्नानपानादिः अर्थः फलं प्रयोजनं स सर्वः | सिद्ध होता है, वह सब प्रयोजन सब ओरसे परिपूर्ण महान् जलाशयमें उतने ही परिमाणमें (अनायास) अर्थः सर्वतः संप्लुतोदके तावान् एव सम्पद्यते सिद्ध हो जाता है । अर्थात् उसमें उनका तत्र अन्तर्भवति इत्यर्थः। अन्तर्भाव है एवं तावान् तावत्परिमाण एव संपद्यते सर्वेषु इसी तरह सम्पूर्ण वेदोंमें यानी वेदोक्त कर्मोंसे जो प्रयोजन सिद्ध होता है अर्थात् जो कुछ उन वेदेषु वेदोक्तेषु कर्मसु यः अर्थो यत् कर्मफलम् ।। कोंका फल मिलता है, वह समस्त प्रयोजन सः अर्थो ब्राह्मणस्य संन्यासिनः परमार्थतत्त्वं परमार्थ-तत्त्वको जाननेवाले ब्राह्मणका यानी विजानतो यः अर्थोविज्ञानफलं सर्वतः संप्लुतोद- संन्यासीका जो सब ओरसे परिपूर्ण महान् जलाशय- स्थानीय विज्ञान आनन्दरूप फल है, उसमें उतने कस्थानीयं तस्मिन् तावान् एव संपद्यते तत्र ही परिमाणमें (अनायास ) सिद्ध हो जाता है । एव अन्तर्भवति इत्यर्थः। अर्थात् उसमें उसका अन्तर्भाव है। 'सर्व तदभिसमोति यत्किञ्च प्रजाः साधु कुर्वन्ति श्रुतिमें भी कहा है कि-"जिसकोचर (रैक्क) यस्तद्वेद यत्स वेद' (छा०४।१।४) इति श्रुतेः। है, वह उन सबके फलकोपा जाता है कि जो कुछ जानता है उस (परब्रह्म) को जो भी कोई जानता 'सर्व कर्माखिलम्' इति च वक्ष्यति । प्रजाअच्छा कार्य करती है। आगे गीतामें भी कहेंगे कि सम्पूर्ण कर्म ज्ञानमें समाप्त हो जाते हैं।' इत्यादि। तस्मात् प्राक् ज्ञाननिष्ठाधिकारप्राप्त कर्मणि सुतरां, यद्यपि कूप, तालाब आदि . छोटे जलाशयोंकी भाँति कर्म अल्प फल देनेवाले हैं तो अधिकृतेन कूपतडागाद्यर्थस्थानीयम् अपि कर्म भी ज्ञाननिष्ठाका अधिकार मिलनेसे पहले-पहले कर्तव्यम् ।।४६॥ कर्माधिकारीको कर्म करना चाहिये ॥ ४६ ॥ कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन । मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि ॥४७॥ कर्मणि एव अधिकारो न ज्ञाननिष्ठायां ते तव । तेरा कर्ममें ही अधिकार है, ज्ञाननिष्ठामें नहीं । तत्र च कर्म कुर्वतो मा फलेषु अधिकारः अस्तु वहाँ ( कर्ममार्गमें ) कर्म करते हुए तेरा फलमें कर्मफलतृष्णा मा भूत् कदाचन कखांचित् कभी अधिकार न हो, अर्थात् तुझे किसी भी अपि अवस्थायाम् इत्यर्थः । अवस्थामें कर्मफलकी इच्छा नहीं होनी चाहिये । यदा कर्मफले तृष्णा ते स्यात् तदा कर्म- यदि कर्मफलमें तेरी तृष्णा होगी तो तू कर्म- फल-प्राप्तिका कारण होगा । अतः इस प्रकार कर्म- फलप्राप्त हेतु: स्याः, एवं मा कर्मफलहेतुः भूः। फल-प्राप्तिका कारण तू मत बन ।