पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/६६

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श्रीमद्भगवद्गीता दूरेण अतिविप्रकर्षेण हि अवरं निकृष्ट कर्म हे धनंजय ! बुद्धियोगकी अपेक्षा,अर्थात् समत्वबुद्धि- फलार्थिना क्रियमाणं बुद्धियोगात् समत्वबुद्धि- से युक्त होकर किये जानेवाले कर्मोकी अपेक्षा, कर्मफल चाहनेवाले सकामी मनुष्यद्वारा किये हुए कर्म, जन्म- युक्तात् कर्मणो जन्ममरणादिहेतुत्वात् धनंजय ।। मरण आदिके हेतु होनेके कारण अत्यन्त ही निकृष्ट हैं। यत एवं योगविषयायां बुद्धौ तत्परियाकजायां इसलिये तू योगविषयक बुद्धिमें, या उसके वा सांख्यबुद्धौ शरणम् आश्रयम् अभयप्राप्ति- ! परिपाकसे उत्पन्न होनेवाली सांख्य-बुद्धिमें, शरण-- कारणम् अन्विच्छ प्रार्थयस्व परमार्थज्ञानशरणो आश्रय अर्थात् अभय-प्राप्तिके हेतुको पानेकी इच्छा भव इत्यर्थः। कर । अभिप्राय यह कि परमार्थ-ज्ञानकी शरण में जा। यतः अवरं कर्म कुर्वाणाः कृपणा दीनाः क्योंकि फल-तृष्णासे प्रेरित होकर सकाम कर्म फलहेतवः फलतृष्णाप्रयुक्ताः सन्तः 'यो वा करनेवाले कृपण हैं-दीन हैं । श्रुतिमें भी कहा है- एतदक्षरं गार्यविदित्वास्माल्लोकात्प्रेति स कूपण' हे गार्गी ! जो इस अक्षर ब्रह्मको न जानकर (बृ०३।८।१०) इति श्रुतेः ॥ ४९ ।। ! इस लोकसे जाता है वह कृपण है ॥४९॥ समत्वबुद्धियुक्तः सन् स्वधर्मम् अनुतिष्ठन् समत्व-बुद्धिसे युक्त होकर स्वधर्माचरण करने- यत् फलं प्राप्नोति तत् शृणु- चाला पुरुष, जिस फलको पाता है वह सुन- बुडियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते । तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम् ॥५०॥ बुद्धियुक्तः समत्वविषयया बुद्ध्या युक्तो समत्वयोगविषयक बुद्धिले युक्त हुआ पुरुष, बुद्धियुक्तो जहाति परित्यजति इह असिन् अन्तःकरणकी शुद्धिके और ज्ञानप्राप्तिके द्वारा लोके उभे सुकृतदुष्कृते पुण्यपापे सत्त्वशुद्धि- देता है, इसी लोकमें कर्म-बन्धनसे मुक्त हो जाता सुकृत-दुष्कृतको-पुण्य-पाप दोनोंको यही त्याग ज्ञानप्राप्तिद्वारेण यतः, तस्मात् समत्वबुद्धि- है । इसलिये तू समत्व-बुद्धिरूप योगकी प्राप्तिके योगाय युज्यस्व घटस्व। लिये यत्न कर-चेष्टा कर । योगो हि कर्मसु कौशलं स्वधर्माख्येषु कर्मसु क्योंकि योग ही तो कर्मोंमें कुशलता है अर्थात् वर्तमानस्य या सिद्धथसिद्धयोः समत्वबुद्धिः बुद्भिसे उत्पन्न हुआ, सिद्धि-असिद्धि-विषयक समत्व- | स्वधर्मरूप कर्ममें लगे हुए पुरुषका जो ईश्वरसमर्पित- ईश्वरार्पितचेतस्तया तत् कौशलं कुशलभावः । भाव है, वही कुशलता है । तत् हि कौशलं यत् बन्धस्वभावानि अपि यही इसमें कौशल है कि स्वभावसे हो बन्धन करनेवाले जो कर्म हैं वे भी समत्व-बुद्धिके प्रभावसे कर्माणि समत्वबुद्धया स्वभावात् निवर्तन्ते । अपने स्वभावको छोड़ देते हैं, अतः तू समत्व- तस्मात् समत्वबुद्धियुक्तो भव त्वम् ॥ ५० ॥ बुद्धिसे युक्त हो ॥ ५० ॥