पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/६९

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शांकरभाष्य अध्याय २

m । यो हि आदित एव संन्यस्य कर्माणि ज्ञान- जो पहलेसे ही कर्मों को त्यागकर ज्ञाननिष्टामें योगनिष्ठायां प्रवृत्तो याच कर्मयोगेन, तयोः स्थित है और जो कर्मयोगसे (ज्ञाननिष्ठाको प्राप्त स्थितप्रज्ञस्य 'प्रजहाति' इति आरभ्य अध्याय- 'हुआ है ) उन दोनों प्रकारके स्थितप्रज्ञोंके लक्षण परिसमाप्तिपर्यन्तं स्थितप्रज्ञलक्षणं साधनं च और साधन 'प्रजहाति' इत्यादि श्लोकसे लेकर उपदिश्यते। अध्यायकी समाप्तिपर्यन्त कहे जाते हैं। सर्वत्र एव हि अध्यात्मशास्त्रे कृतार्थलक्षणानि अध्यात्मशास्त्र में सभी जगह कृतार्थ पुरुषके जो यानि तानि एव साधनानि उपदिश्यन्ते लक्षण होते हैं, वे ही यत्नद्वारा साव्य होने के कारण (दूसरोंके लिये ) साधनरूपसे उपदेश किये जाते यत्नसाध्यत्वात् । यानि यत्नसाध्यानि साधनानि हैं । जो यहसाध्य साधन होते हैं वे ही (सिद्ध लक्षणानि च भवन्ति तानि । पुरुषके स्वाभाविक ) लक्षण होते हैं । श्रीभगवानुवाच- । श्रीभगवान् बोले- प्रजहाति यदा कामान्सर्वान्पार्थ मनोगतान् । आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते ॥ ५५ ॥ प्रजहाति प्रकर्षेण जहाति परित्यजति यदा हे पार्थ! जब मनुष्य मनमें स्थित हृदयमें प्रविष्ट यस्मिन्काले सर्वान् समस्तान् कामान् इच्छाभेदान् | सम्पूर्ण कामनाओंको--सारे इच्छा-भेदोंको भली प्रकार हे पार्थ मनोगतान् मनसि प्रविष्टान् हृदि प्रविष्टान् । त्याग देता है—छोड़ देता है । सर्वकामपरित्यागे तुष्टिकारणाभावात् सारी कामनाओंका त्याग कर देनेपर तुष्टिके कारणोंका अभाव जाता है और शरीरधारणका हेतु शरीरधारणनिमित्तशेषे च सति उन्मत्तप्रमत्तस्य : जो प्रारब्ध है उसका अभाव होता नहीं, अतः शरीर- इव प्रवृत्ति प्राप्ता इति अत उच्यते- स्थिति के लिये उसमनुष्यकी उन्मत-पूरे पागलके सदृश प्रवृत्ति होगी, ऐसी शंका प्राप्त होनेपर कहते हैं- आत्मनि एव प्रत्यगात्मस्वरूये एव आत्मना | तब वह अपने अन्तरात्मस्वरूपमें ही किसी बाझ स्वेन एव बाह्यलाभनिरपेक्षः तुष्टः परमार्थदर्शना- लाभकी अपेक्षा न रखकर अपने आप सन्तुष्ट रहनेवाला अर्थात् परमार्थदर्शनरूप अमृतरस-लाभसे तृप्त, अन्य मृतरसलामेन अन्यसात् अलंप्रत्ययवान् i सब अनात्मपदार्थोसे अलंबुद्भिवाला तृष्णारहित पुरुष स्थितप्रज्ञः स्थिता प्रतिष्ठिता आत्मानात्म-स्थितप्रज्ञ कहलाता है अर्थात् जिसकी आत्म-अनात्मके विवेकजा प्रज्ञा यस्य स स्थितप्रज्ञो विद्वान् तदा | विवेकसे उत्पन्न हुई बुद्धि स्थित हो गयी है, वह स्थित- प्रज्ञ यानी ज्ञानी कहा जाता है। त्यक्तपुत्रवित्तलोकैवणः संन्यासी आत्माराम अभिप्राय यह कि पुत्र, धन और लोककी समस्त तृष्णाओंको त्याग देनेवाला. संन्यासी ही आत्माराम, आत्मक्रीडः स्थितप्रज्ञ इत्यर्थः ॥५५।। आत्मक्रीड और स्थितप्रज्ञ है ॥५५॥ । उच्यते ।