पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/८

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वेदान्त-शास्त्रमें उपनिषद्का इसी प्रकार मुख्य स्थान है । वेदोंका अन्तिम उपदेश ही वेदान्त है। कर्मकाण्डीको उपनिषद्के रहस्यमय आध्यात्मिक ज्ञानका अधिकारी बनने पर ही उपदेश से लाभ हो. सकता था । इतना ध्यान रखनेकी बात है कि गुह्यविद्या या उपदेश अनधिकारीको न देनेसे उसीका कल्याण था । स्वार्थवश गुप्त रखना सिद्धान्तानुकूल नहीं था । वेदान्तके तीन प्रस्थान हैं । श्रौत-प्रस्थान उपनिषद् हैं जो वेदके ही अंग हैं, दूसरा स्मार्त-प्रस्थान है जो गीता है और तीसरा प्रस्थान दार्शनिक है जो वेदव्यास-प्रणीत ब्रह्मसूत्र है। इन प्रस्थानत्रयके आधारपर समस्त वेदान्त-साहित्यको रचना हुई है । इन्हींपर भाष्य लिखकर महात्माओं और धर्म- प्रवर्तकोंने आचार्य-पदवी प्राप्त की है। देशकी यही प्रणाली थी कि प्रस्थानत्रयपर भाष्य रचकर अपने सिद्धान्तोंकी पुष्टि एवं प्रचार किया जाता था । इनका समन्वय भाष्योंद्वारा किये बिना किसी सिद्धान्त- को वेद या धर्म-मूलक कहनेका कोई साहस नहीं कर सकता था । मतलब यह कि सिद्धान्तप्रतिपादक स्वतन्त्र ग्रन्थ-रचनाकी अपेक्षा प्रस्थानत्रयीपर भाष्य लिखनेको अधिक महत्त्व दिया गया था और भाष्योंके समन्वयसे मतकी पुष्टि की जाती थी। गीताके अध्यायोंकी समाप्तिमें 'उपनिषत्सु' शब्द आता है । भगवान्के श्रीमुखसे यह उपदेश हुआ है तो वेद और उपनिषद्का दर्जा उसे दिया गया तो कोई आश्चर्य नहीं, परन्तु वेद अपौरुषेय हैं और उपनिषद् श्रौत हैं । अतएव गीता स्मार्त-प्रस्थानके ही अन्तर्गत है । गीतापर अनेक भाष्य और टीकाएँ बनी हैं। और अब भी उसके विवेचनमें जो साहित्य बनता जाता है, वह भी उपेक्षणीय नहीं है । परन्तु गीताका अध्ययन स्वतन्त्ररूपसे बहुत कम हुआ है। सिद्धान्त-प्रतिपादन और साम्प्रदायिक दृष्टि से ही उसपर अधिक विचार हुआ है । उसका परिणाम यह हुआ है, कि गीताका वास्तविक अर्थ कठिनतासे समझमें आता है । प्रतिभाशाली आचार्यों और टीकाकारोंके मत-विभिन्नतासे साधारण बुद्धिके लोग घबरा जाते हैं । महाकवि और उसके उत्कृष्ट काव्यमें ऐसी शक्ति होती है कि समाजको प्रगति के साथ उसमें नये अर्थ निकाले जाते हैं और उसके द्वारा नवीन भावनाओंकी पूर्ति होती रहती है। फिर गीता-जैसे अतुलनीय ग्रन्थमें समय-समयपर आवश्यकतानुसार अनेक आशय और अर्थ निकाले गये तो कोई नयी बात नहीं है। इससे ग्रन्थकी महिमाका परिचय मिलता है। परन्तु उसके मूल सिद्धान्तोंको यथावत् निश्चयपूर्वक खोज निकालना अवश्य ही अति कठिन हो जाता है । जिस अन्धने अपूर्व समन्वय किया है, वही मत-विभिन्नताके कारण परस्परविरोधी सिद्धान्तों- का समर्थक बना लिया गया है । मनुष्यको सत्यका अंश भी बुद्धिगम्य हो जाय तो वह कृतकृत्य हो जाता है । भाष्यकारोंने जैसा अपने अनुभवसे गीताके तत्त्वको समझा, वैसा ही वर्णन किया है। उनके समन्वयमें जो आनन्द है, वह उनके पक्षपात और विरोधकी आलोचनामें नहीं है । अतएव इस बातकी चर्चा यहाँ अभीष्ट नहीं है कि गीताके वास्तविक अर्थकी रक्षा भगवान् शंकराचार्यने अपने भाष्यमें कहाँतक को है । प्रचारकको सम्भवतः अत्युक्तिका आश्रय आवश्यक होता है । यह भी याद रखना उचित है.- शङ्करः शङ्करः साक्षाद्व्यासो नारायणः स्वयम् । तयोर्विवादे सम्प्राप्ते न जाने किं करोम्यहम् ।। 2