पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/७५

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शांकरभाष्य अध्याय २ अयुक्तस्य कस्मात् बुद्धिः न अस्ति इति अयुक्त पुरुषमें बुद्धि क्यों नहीं होती ? इसपर कहते हैं- इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनुविधीयते । तदस्य हरति प्रज्ञां वायु वमिवाम्भसि ॥ ६७ ॥ इन्द्रियाणां हि बरसात् चरतां वस्त्रविषयेषु क्योंकि अपने-अपने विषयमें विचरनेवाली अर्थात् प्रवर्तमानानां यत् मनः अनुविधीयते अनुप्रवर्तते विषयोंमें प्रवृत्त हुई इन्द्रियोंमेंसे जिसके पीछे-पीछे तत् इन्द्रियविषयविकल्पने प्रवृत्तं मनः अस्य यह मन जाता है—विषयोंमें प्रवृत्त होता है, वह यते: हरति उस इन्द्रियके विषयको विभागपूर्वक ग्रहण करनेमें प्रज्ञाम् आत्मानात्मविवेकजा लगा हुआ मन, इस साधककी आत्म-अनात्म- नाशयति । सम्बन्धी विवेक-ज्ञानसे उत्पन्न हुई बुद्धिको हर लेता है अर्थात् नष्ट कर देता है। कथम्, वायुः नावम् इव अम्भसि उदके जिग- कैसे ? जैसे जलमें नौकाको वायु हर लेता है मिषता मार्गात् उद्धृत्य उन्मार्गे यथा वायुः नावं वैसे ही, अर्थात् जैसे वायु जलमें चलनेकी इच्छा- वाले पुरुषोंकी नौकाको मार्गसे हटाकर उलटे मार्ग- प्रवर्तयति एवम् आत्मविषयां प्रज्ञां हत्वा मनो पर ले जाता है वैसे ही यह मन आत्मविषयक बुद्धिको विषयविषयां करोति ॥६७।। विचलित करके विषयविषयक बना देता है ॥६॥ 'यततो ह्यपि' इति उपन्यस्तस्य अर्थस्य 'यततो ह्यापि' इस श्लोकसे प्रतिपादित अर्थकी अनेकधा उपपत्तिम् उक्त्वा तं च अर्थम् उपय अनेक प्रकारसे उपपत्ति बतलाकर उस अभिप्रायको उपसंहरति-- सिद्ध करके अब उसका उपसंहार करते हैं- तस्माद्यस्य महाबाहो निगृहीतानि सर्वशः । इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता॥ ६८ ॥ इन्द्रियाणां - प्रवृत्तौ दोष उपपादितो . क्योंकि इन्द्रियोंकी प्रवृत्तिमें दोष सिद्ध किया जा यसात्---तस्मात् यस्य यतः हे महाबाहो चुका है, इसलिये हे महाबाहो ! जिस यतिकी निगृहीतानि सर्वशः सर्वप्रकारैः मानसादिभेदैः इन्द्रियाँ अपने-अपने शब्दादि विषयोंसे सब प्रकारसे इन्द्रियाणि इन्द्रियार्थेभ्यः शब्दादिभ्यः तस्य ! अर्थात् मानसिक आदि भेदोंसे निगृहीत की जा चुकी प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥६८॥ हैं-(वशमें की हुई हैं) उसकी बुद्धि प्रतिष्ठित है ।।६८॥ यः अयं लौकिको वैदिकः च व्यवहारः स यह जो लौकिक और वैदिक व्यवहार है वह उत्पन्न विवेकज्ञानस्य स्थितप्रज्ञस्य अविद्याकार्य-, सब-का-सब अविद्याका कार्य है अतः जिसको विवेक- ज्ञान प्राप्त हो गया है, ऐसे स्थितप्रज्ञके लिये त्वात् अविद्यानिवृत्तौ निवर्तते । अविद्यायाः अविद्याकी निवृत्तिके साथ-ही-साथ (यह व्यवहार भी) च विद्याविरोधात् निवृत्तिः इति एतम् अर्थ निवृत्त हो जाता है । और अविधाका विद्याके साथ स्फुटीकुर्वन् आह--- विरोध होनेके कारण उसकी भी निवृत्ति हो जाती है । इस अभिप्रायको स्पष्ट करते हुए कहते हैं-