पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/७६

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श्रीमद्भगवद्गीता या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागति संयमी । यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः ॥ ६६ ।। या निशा रात्रि सर्वपदार्थानाम् अविवेककरी तामस स्वभावके कारण सब पदार्थोंका अविवेक तमाखभावत्वात् सर्वेषां भूतानां सर्वभूतानाम् । करानेवाली रात्रिका नाम निशा है । सब भूतोंकी जो निशा अर्थात् रात्रि है- कि तत्, परमार्थतत्त्वं स्थितप्रज्ञस्य विषयः । वह (निशा) क्या है ? (उ०) परमार्थतत्त्व, जो कि यथा नक्तंचराणाम् अहः एव सत् अन्येषां निशा स्थितप्रज्ञका विषय है ( ज्ञेय है )। जैसे उल्छ आदि रजनीचरोंके लिये दूसरोंका दिन भी रात होती है वैसे भवति तद्वत् नक्तंचरस्थानीयानाम् अज्ञानां ही निशाचरस्थानीय जो सम्पूर्ण अज्ञानी मनुष्य हैं, सर्वभूतानां निशा इव निशा परमार्थतत्त्वम् | जिनमें परमार्थतत्त्व-विषयक बुद्धि नहीं है उन सब अगोचरत्वात् अतबुद्धीनाम् । भूतोंके लिये अज्ञात होनेके कारण यह परमार्थतत्त्व रात्रिकी भाँति रात्रि है। तस्यां परमार्थतत्त्वलक्षणायाम् अज्ञाननिद्रायाः उस परमार्थतत्त्वरूप रात्रिमें अज्ञाननिद्रासे जगा प्रबुद्धो जागर्ति संयमी संयमवान् जितेन्द्रियो | हुआ संयमी अर्थात् जितेन्द्रिय-योगी जागता है । योगी इत्यर्थः। यस्यां ग्राह्यग्राहकभेदलक्षणायाम् अविद्या- ग्राह्य-ग्राहकभेदरूप जिस अविद्यारात्रिमें सोते निशायां प्रसुप्तानि एव भूतानि जाग्रति इति , हुए भी सब प्राणी: जागते कहे जाते हैं अर्थात् उच्यते यस्यां निशायां प्रसुप्ता इव स्वमशः : जिस रात्रिमें सब प्राणी सोते हुए स्वप्न देखनेवालोंके सदृश जागते हैं। वह (सारा दृश्य ) अविधारूप सा निशा अविद्यारूपत्वात् परमार्थतत्त्वं पश्यतो होनेके कारण परमार्थतत्त्वको जाननेवाले मुनिके मुनेः । लिये रात्रि है। अतः कर्माणि अविद्यावस्थायाम् एव चोद्यन्ते ! सुतरां ( यह सिद्ध हुआ कि ) अविद्या-अवस्थामें न विद्यावस्थायाम् । विद्यायां हि सत्याम् उदिते ही ( मनुष्यके लिये ) कोका विधान किया जाता सवितरि शार्वरम् इव तमः प्रणाशम् उपगच्छति होनेपर रात्रिसम्बन्धी अन्धकार दूर हो जाता है, उसी है, विद्यावस्था में नहीं । क्योंकि जैसे सूर्य के उदय अविद्या। प्रकार ज्ञान उदय होनेपर अज्ञान नष्ट हो जाता है। प्राक् विद्योत्पत्तेः अविद्या प्रमाणबुद्ध्या ज्ञानोत्पत्तिसे पहले-पहले प्रमाणबुद्धिसे ग्रहण की गृह्यमाणा क्रियाकारकफलभेदरूपा सती सर्व- हुई अविद्या ही क्रिया, कारक और फल आदिके भेदोंमें परिणत होकर सब कर्म करवानेका हेतु बन कर्महेतुत्वं प्रतिपद्यते । न अप्रमाणबुद्धया सकती है, अप्रमाणबुद्धिसे ग्रहण की हुई ( अविद्या) गृधमाणायाः कर्महेतुत्वोपपत्तिः । कर्म करवानेका कारण नहीं बन सकती।