पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/७७

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शांकरभाष्य अध्याय २ प्रमाणभूतेन वेदेन मम चोदितं कर्तव्यं ! क्योंकि प्रमाणस्वरूप वेदने मेरे लिये अमुक कर्म इति हि कर्मणि कर्ता प्रवर्तते न अविद्या- कर्तव्य-कभोंका विधान किया है, ऐसा मानकर ही मात्रम् इदं सर्व निशा इव इति । कर्ता कर्ममें प्रवृत्त होता है, यह सब रात्रिकी भाँति अविद्यामात्र है, इस तरह समझकर नहीं होता। यस्य पुनः निशा इव अविद्यामात्रम् इदं सर्व जिसको ऐसा ज्ञान प्राप्त हो गया है कि यह भेदजातम् इति ज्ञानं तस्य आत्मज्ञस्य सर्वकर्म- सारा दृश्य रात्रिकी भाँति अविद्यामात्र ही है, उस संन्यासे एव अधिकारो न प्रवृत्तौ । आत्मज्ञानीका तो सर्व कमोंके संन्यासमें ही अधि- कार है, प्रवृत्तिमें नहीं। तथा च दर्शयिष्यति--'तबुद्धयस्त- इसी प्रकार तद्बुद्धयस्तदात्मानः' इत्यादि श्लोकोंसे दात्मानः' इत्यादिना ज्ञाननिष्ठायाम् एव तस्य उस ज्ञानीका अधिकार ज्ञाननिष्ठामें हो दिखलायेंगे। अधिकारम् । तत्र अपि प्रवर्तकप्रमाणाभावे प्रवृत्त्यनुप- पू०-उस ज्ञाननिष्ठामें भी ( तत्त्ववेत्ताको ) प्रवृत्त पत्तिः इति चेत् । करनेवाले प्रमाणका ( विधिवाक्यका ) अभाव है इसलिये उसमें भी उसकी प्रवृत्ति नहीं हो सकती। न, स्वात्मविषयत्वात् आत्मज्ञानस्य । न हि उ०-यह कहना ठीक नहीं, क्योंकि आत्म- ज्ञान अपने स्वरूपको विषय करनेवाला है,अतः अपने आत्मनः स्वात्मनि प्रवर्तकप्रमाणापेक्षता स्वरूपज्ञानके विषयमें प्रवृत्त करनेवाले प्रमाणकी आत्मत्वात् एव तदन्तत्वात् च सर्वप्रमाणानां अपेक्षा नहीं होती है वह आत्मज्ञान स्वयं आत्मा होनेके कारण स्वतःसिद्ध है और उसमें सब प्रमाणत्वस्य । न हि आत्मस्वरूपाधिगमे सति प्रमाणोंके प्रमाणत्वका अन्त है अर्थात् आत्मज्ञान होनेतक ही प्रमाणोंका प्रमाणत्व है, अतः आत्म- पुनः प्रमाणप्रमेयव्यवहारः सम्भवति । स्वरूपका साक्षात् होनेके बाद प्रमाण और प्रमेय- का व्यवहार नहीं बन सकता । प्रमातृत्वं हि आत्मनो निवर्तयति अन्त्यं (आत्मज्ञानरूप) अन्तिम प्रमाण, आत्माके प्रमातापनको भी निवृत्त कर देता है । उसको निवृत्त प्रमाणम् । निवर्तयत् एव च अप्रमाणीभवति करता हुआ वह खयं भी जागने के बाद स्वप्नकालके स्वग्नकालप्रमाणम् इव प्रबोधे ।। प्रमाणकी माँति अप्रमाणी हो जाता है अर्थात् लुप्त हो जाता है। लोके च वस्त्वधिगमे प्रवृत्तिहेतुत्वादर्शनात् क्योंकि व्यवहारमें भी वस्तु प्राप्त होनेके बाद | कोई प्रमाण ( उस वस्तुकीप्राप्तिके लिये) प्रवृत्तिका प्रमाणस्य। हेतु होता नहीं देखा जाता । तस्मात् न आत्मविदः कर्मणि अधिकार इसलिये यह सिद्ध हुआ कि आत्मज्ञानीका कर्मों- इति सिद्धम् ॥ ६९॥ में अधिकार नहीं है ॥६९॥