पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/७८

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श्रीमद्भगवद्गीता विदुषः त्यतैषणस्य स्थितप्रज्ञस्य यतेः एव जिसने तीनों एषणाओंका त्याग कर दिया है, ऐसे मोक्षप्राप्तिः न तु असंन्यासिनः कामकामिन इति | स्थितप्रज्ञ विद्वान् संन्यासीको ही मोक्ष मिलता है, भोगोंकी कामना करनेवाले असंन्यासीको नहीं । इस एतम् अर्थ दृष्टान्तेन प्रतिपादयिष्यन् आह--- | अभिप्रायको दृष्टान्तद्वारा प्रतिपादन करनेकी इच्छा करते हुए भगवान् कहते हैं- आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत् । तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वेस शान्तिमाप्नोति न कामकामी ॥ ७० ॥ आपूर्यमाणम् अद्भिः अचलप्रतिष्ठम् अचलतया जिस प्रकार, जलसे परिपूर्ण अचल प्रतिष्ठावाले प्रतिष्ठा अवस्थितिः यस्य तम् अचलप्रतिष्ठं समुद्रम् | समुद्रमें अर्थात् अचल भावसे जिसकी प्रतिष्ठा- स्थिति है ऐसे अपनी मर्यादामें स्थित, समुद्र में सब आपः सर्वतोगताः प्रविशन्ति स्वात्मस्थम् अवि- ओरसे गये हुए जल, उसमें किसी प्रकारका विकार क्रियम् एव सन्तं यद्वत्, उत्पन्न किये बिना ही समा जाते हैं, तद्वत् - कामा विषयसंनिधौ अपि सर्वत उसी प्रकार विषयोंका संग होनेपर भी जिस पुरुपमें इच्छाविशेषा यं पुरुष समुद्रम् इव आपः अवि- समस्त इच्छाएँ समुद्र में जलकी भाँति कोई भी विकार उत्पन्न न करती हुई सब ओरसे प्रवेश कर जाती हैं, कुर्वन्तः प्रविशन्ति सर्वे आत्मनि एव प्रलीयन्ते अर्थात् जिसकी समस्त कामनाएँ आत्मामें लीन हो न स्वात्मवशं कुर्वन्ति । जाती हैं, उसको अपने वश में नहीं कर सकती-~- स शान्ति मोक्षम् आप्नोति न इतरः कामकामी उस पुरुषको शान्ति अर्थात् मोक्ष मिलता है, दूसरेको अर्थात् भोगोंको कामना करनेवालेको नहीं काम्यन्ते इति कामा विषयाः तान् कामयितुं मिलता । अभिप्राय यह कि जिनको पानेके लिये शीलं यस्य स कामकामी न एवं प्राप्नोति । इच्छा की जाती है उन भोगोंका नाम काम है, उनको पानेकी इच्छा करना जिसका स्वभाव है वह काम- इत्यर्थः ॥ ७॥ कामी है, वह उस शान्तिको कभी नहीं पाता ||७०॥ यस्मात् एवं तस्मात्- । क्योंकि ऐसा है, इसलिये---- विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति निस्पृहः । निर्ममो निरहङ्कारः स शान्तिमधिगच्छति ॥७१॥ विहाय परित्यज्य कामान् यः संन्यासी पुमान् । जो संन्यासी पुरुष, सम्पूर्ण कामनाओंको और सर्वान् अशेषतः कात्स्न्र्थेन चरति जीवनमान- | भोगोंको अशेषतः त्यागकर अर्थात् केवल जीवन- मात्रके निमित्त ही चेष्टा करनेवाला होकर चेष्टाशेषः पर्यटति इत्यर्थः। विचरता है। निस्पृहः शरीरजीवनमात्रे अपि निर्गता तथा जो स्पृहासे रहित हुआ है, अर्थात् शरीर- स्पृहा यस्य स निस्पृहः सन् । जीवनमात्रमें भी जिसकी लालसा नहीं है।