पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/८०

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तृतीयोऽध्यायः शास्त्रस्य प्रवृत्तिनिवृत्तिविषयभूते द्वे बुद्धी | इस गीताशास्त्रके दूसरे अध्यायमें भगवान्ने भगवता निर्दिष्टे, सांख्ये बुद्धिः योगे बुद्धिः | प्रवृत्तिविषयक योगबुद्धि और निवृत्तिविषयक इति च। सांख्यबुद्धि-ऐसी दो बुद्धियाँ दिखलायी हैं। तत्र 'प्रजहाति यदा कामान्' इति आरभ्य वहाँ सांख्यबुद्धिका आश्रय लेनेवालोंके लिये आ-अध्यायपरिसमाप्तेः सांख्यबुद्धयाश्रितानां 'प्रजहाति यदा कामान्' इस श्लोकसे लेकर अध्याय- | समाप्तितक,सर्वकर्मोंका त्याग करना कर्तव्य बतला- संन्यासं कर्तव्यम् उक्त्वा तेषां तन्निष्ठतया एव कर 'एषा ब्राह्मी स्थितिः' इस श्लोकमें उसी च कृतार्थता उक्ता---'एषा वाली स्थितिः' इति । ज्ञाननिष्टासे उनका कृतार्थ होना बतलाया है । अर्जुनाय च 'कर्मण्येवाधिकारस्ते' ‘मा ते परन्तु अर्जुनको 'तेरा कर्ममें ही अधिकार है' सङ्गोऽस्त्वकर्मणि' इति कर्म एव कर्तव्यम् उक्तवान् । 'कर्म न करनेमें तेरी प्रीति न होनी चाहिये योगबुद्धिम् आश्रित्य, न तत एव श्रेय प्राप्तिम् | इत्यादि वचनोंसे (ऐसा कहा कि) योगबुद्धिका आश्रय लेकर तुझे कर्म ही करना चाहिये, ( पर ) उसीसे उक्तवान् । मुक्तिकी प्राप्ति नहीं बतलायी। तत् एतत् आलक्ष्य पर्याकुलीभूतबुद्धिः इस बातको विचारकर अर्जुनकी बुद्धि व्याकुल अर्जुन उवाच- हो गयो और वह बोला--('ज्यायसी चेत्' | इत्यादि) कथं भक्ताय श्रेयोऽर्थिने यत् साक्षात् कल्याण चाहनेवाले भक्तके लिये मोक्षका श्रेयासाधनं सांख्यबुद्धिनिष्ठां श्रावयित्वा मां | साक्षात् साधन जो सांख्यबुद्धि-निष्ठा है उसे कर्मणि दृष्टानेकानर्थयुक्ते पारम्पर्येण अपि | सुनाकर भी जो प्रत्यक्षीकृत अनेक अनर्थोंसे युक्त अनैकान्तिकश्रेय प्राप्तिफले नियुज्याद् इति हैं और क्रमसे आगे बढ़नेपर भी ( इसी जन्ममें ) युक्तः पर्याकुलीभावः अर्जुनस्य ।। एकमात्र मोक्षकी प्राप्तिरूप फल जिनका निश्चित नहीं है ऐसे कर्नामें मुझे भगवान् क्यों लगाते हैं। इस प्रकार अर्जुनका व्याकुल होना उचित ही है । तदनुरूपःच प्रश्नः 'ज्यायसी चेत्' इत्यादिः। और उस व्याकुलताके अनुकूल ही यह 'ज्यायसी चेत्' इत्यादि प्रश्न हैं। प्रश्नापाकरणवाक्यं च भगवता. उक्तं इस प्रश्नको निवृत्त करनेवाले वचन भी भगवान्ने यथोक्तविभागविषये शास्त्रे । पूर्वोक्त विभागविषयक शास्त्रमें ( जहाँ ज्ञाननिष्ठा और कर्मनिष्ठाका अलग-अलग वर्णन है) कहे हैं।