पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/८१

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शांकरभाष्य अध्याय ३ केचित् तु अर्जुनस्य प्रश्नार्थम् अन्यथा ! तो भी कितने ही टीकाकार अर्जुनके प्रश्नका कल्पयित्वा तत्प्रतिकूलं भगवतः प्रतिवचन प्रयोजन दूसरी तरह मानकर उससे विपरीत भगवान्- वर्णयन्ति । यथा च आत्मना सम्बन्धनन्थे । का उत्तर बतलाते हैं तथा पहले, भूमिका में स्वयं जैसा गीतार्थो निरूपितः तत्प्रतिकूलं च इह पुनः गीताका तात्पर्य बतला आये हैं, उससे भी यहाँ प्रश्न प्रश्नप्रतिवचनयोः अर्थ निरूपयन्ति । और उत्तरका अर्थ विपरीत प्रतिपादन करते हैं। कथम्, तत्र सम्बन्धनन्थे तावत्-सर्वेषाम् कैसे ? (सो कहते हैं कि)-वहाँ भूमिकामें तो आश्रमिणां ज्ञानकर्मणोः समुच्चयो गीताशास्त्रे (उन टीकाकारोंने ) ऐसे कहा है कि गीताशास्त्रमें निरूपितः अर्थ इति उक्तम्, पुनः विशेषितं च निरूपण किया है और विशेषरूपसे यह भी कहा सब आश्रमवालोंके लिये ज्ञान और कर्मका समुच्चय यावज्जीवश्रुतिचोदितानि कर्माणि परित्यज्य है कि 'जबतक जीवे अग्निहोत्रादि कर्म करता केवलाद् एव ज्ञानात् मोक्षः प्राप्यते इति रहे' इत्यादि श्रुतिविहित कर्मोंका त्याग करके केवल एतद् एकान्तेन एवं प्रतिषिद्धम् इति । ज्ञानसे मोक्ष प्राप्त होता है, इस सिद्धान्तका गीता- शास्त्रमें निश्चितरूपसे निषेध है। इह तु आश्रमविकल्पं दर्शयता यावजीव- परन्तु यहाँ (तीसरे अध्यायमें ) उन्होंने आश्रमोंका श्रुतिचोदितानाम् एव कर्मणां परित्याग उक्तः। विकल्प दिखलाते हुए 'जबतक जीवे' इत्यादि श्रुति- विहित कर्मोंका ही त्याग बतलाया है। तत् कथम् ईदृशं विरुद्धम् अर्थम् अर्जुनाय इससे यह शंका होती है कि इस प्रकारके याद् भगवान्, श्रोता वा कथं विरुद्धम् अर्थम् और सुननेवाला (अर्जुन ) भी ऐसे विरुद्ध अर्थको विरुद्ध अर्थवाले वचन भगवान् अर्जुनसे कैसे कहते अवधारयेत् । कैसे स्वीकार करता? तत्र एतत् स्याद् गृहस्थानाम् एव श्रौतकर्म- प०-यदि वहाँ ( भूमिकामें ) ऐसा अभिप्राय हो परित्यागेन केवलाद् एव ज्ञानात् मोक्षः कि गृहस्थके लिये ही श्रौत-कर्मके त्यागपूर्वक केवल ज्ञानसे मोक्षप्राप्तिका निषेत्र किया है, दूसरे प्रतिषिध्यते न तु आश्रमान्तराणाम् इति । | आश्रमवालोंके लिये नहीं, तो? एतद् अपि पूर्वोत्तरविरुद्धम् एव । कथम्, उ०-यह भी पूर्वापरविरुद्ध ही है। क्योंकि सर्वाश्रमिणां ज्ञानकर्मणोः समुच्चयो -गीता- | 'सभी आश्रमवालों के लिये ज्ञान और कर्मका समुच्चय शास्त्रे निश्चितः अर्थ इति प्रतिज्ञाय इह कथं गीताशास्त्रका निश्चित अभिप्राय हैं। ऐसी प्रतिज्ञा तद्विरुद्धं केवलाद् एव ज्ञानात् मोक्षं ब्रयाद् करके उसके विपरीत यहाँ दूसरे आश्रमवालों के आश्रमान्तराणाम् । लिये वे केवल ज्ञानसे मोक्ष कैसे बतलाते ? । अथ मतं श्रौतकर्मापेक्षया एतद् वचन पू०-कदाचित् ऐसा मान लें कि यह कहना केवलाद् एव ज्ञानात् श्रौतकर्मरहिताद् श्रोत-कर्मकी अपेक्षासे है अर्थात् श्रौत-कर्मसे रहित गृहस्थानां मोक्षः प्रतिषिध्यते इति । तत्र | केवल ज्ञानसे गृहस्थोंके लिये मोक्षका निषेध किया गृहस्थानां विद्यमानम् अपि सात कर्म गया है, उसमें जो, केवल ज्ञानसे गृहस्थोंका मोक्ष अविद्यमानवद् उपेक्ष्य ज्ञानाद् एव केवलाद्न नहीं होता, ऐसा कहा है वह विद्यमान स्मार्त-कर्म- मोक्षे इति उच्यते इति। की भी अविद्यमानके सदृश उपेक्षा करके कहा है। ।