पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/८७

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शांकरभाष्य अध्याय ३

मम बुद्धिव्यामोहापनयाय हि प्रवृत्तः त्वं वास्तवमें आप तो मेरी बुद्धिका मोह दूर करने- तु कथं मोहयसि अतो ब्रवीमि बुद्धिं मोहयसि के लिये प्रवृत्त हुए हैं, फिर मुझे मोहित कैसे करते ! इसीलिये कहता हूँ कि आप मेरी बुद्धिको इव मे मम इति । मोहित-सी करते हैं। त्वं तु भिन्नकर्तृकयोः ज्ञानकर्मणोः एक- आप यदि अलग-अलग अधिकारियोंद्वारा किये पुरुषानुष्ठानासम्भवं यदि मन्यसे तत्र एवं सति जाने योग्य ज्ञान और कर्मका अनुष्ठान एक पुरुष- द्वारा किया जाना असम्भव मानते हैं, तो उन दोनोंमेंसे तंत् तयोः एक बुद्धि कर्म वा इदम् एव अर्जुनस्य ज्ञान या कर्म यही एक बुद्धि, शक्ति और अवस्थाके योग्यं बुद्धिशक्त्यवस्थानुरूपम् इति निश्चित्य वद अनुसार अर्जुनके लिये योग्य है'—ऐसा निश्चय बेहि । येन ज्ञानेन कर्मणा वा अन्यतरेण श्रेयः करके मुझसे कहिये, जिस ज्ञान या कर्म किसी अहम् आप्नुयां प्राप्नुयाम् । एकसे मैं कल्याणको प्राप्त कर सकूँ। यदि हि कर्मनिष्ठायां गुणभूतम् अपि ज्ञानं यदि कर्मनिष्ठामें गौणरूपसे भी ज्ञानको भगवान्ने भगवता उक्तं स्यात् तत् कथं तयोः एकं वद कहा होता तो 'दोनोंमेंसे एक कहिये इस प्रकार एक- इति एकविषया एव अर्जुनस्य शुश्रूषा स्यात् । हीको सुननेकी अर्जुनकी इच्छा कैसे होती ? न हि भगवता उक्तम् अन्यतरद् एव ज्ञान- क्योंकि "ज्ञान और कर्म इन दोनोंमेंसे मैं तुझसे कर्मणोः वक्ष्यामि न एव द्वयम् इति । येन एक ही कहूँगा, दोनों नहीं—ऐसा भगवान्ने कहीं नहीं कहा, कि जिससे अर्जुन अपने लिये उभयप्राप्त्यसम्भवम् आत्मनो मन्यमान एकम् : दोनोंकी प्राप्ति असम्भव मानकर एकके लिये ही एव प्रार्थयेत् ॥२॥ प्रार्थना करता ॥२॥ 1 -- प्रश्नानुरूपम् एव प्रतिवचनम्--- प्रश्नके अनुसार ही उत्तर देते हुए---- श्रीभगवानुवाच- श्रीभगवान् बोले-~- लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ । ज्ञानयोगेन सांख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम् ॥३॥ लोके अस्मिन् शास्त्रानुष्ठानाधिकृतानां हे निष्पाप अर्जुन ! इस मनुष्यलोकमें शास्त्रोक्त त्रैवर्णिकानां द्विविधा द्विप्रकारा निष्टा स्थितिः कर्म और ज्ञानके जो अधिकारी हैं, ऐसे तीनों अनुष्ठेयतात्पर्य पुरा पूर्व सर्गादौ प्रजाः सृष्ट्वा वैश्योंके लिये ) दो प्रकारको निष्ठा-स्थिति अर्थात् वर्णवालोंके लिये (अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय और तासाम् अभ्युदयनिःश्रेयसप्राप्तिसाधनं वेदार्थ कर्तव्य-तत्परता, पहले-सृष्टिके आदिकालमें प्रजाको सम्प्रदायम् आविष्कुर्वता प्रोक्ता मया सर्वज्ञेन रचकर उनकी लौकिक उन्नति और मोक्षकी प्राप्ति- ईश्वरेण हे अनघ अपाप। के साधनरूप वैदिक सम्प्रदायको आविष्कार करने- वाले मुझ सर्वज्ञ ईश्वरद्वारा कही गयी हैं ।