पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/८८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

७२ श्रीमद्भगवद्गीता तत्र का सा द्विविधा निष्ठा इति आह- वह दो प्रकारकी निष्ठा कौन-सी हैं ? सो कहते हैं- ज्ञानयोगेन ज्ञानम् एव योगः तेन सांख्यानाम् | जो आत्म-अनात्मके विषयमें विवेक जन्य ज्ञानसे आत्मानात्मविषयविवेकज्ञानवतां ब्रह्मचर्या- सम्पन्न हैं, जिन्होंने ब्रह्मचर्य-आश्रमसे ही संन्यास ग्रहण कर लिया है, जिन्होंने वेदान्तके विज्ञानद्वारा श्रमाद् एव कृतसंन्यासानां वेदान्तविज्ञान- आत्मतत्त्वका भलीभाँति निश्चय कर लिया है, जो सुनिश्चितार्थानां परमहंसपरिव्राजकानां ब्रह्मणि परमहंस संन्यासी हैं, जो निरन्तर ब्रह्ममें स्थित हैं ऐसे एव अवस्थितानां निष्ठा प्रोक्ता। सांख्ययोगियोंकी निष्टा ज्ञानरूप योगसे कही है । कर्मयोगेन कर्म एव योगः कर्मयोगः तेन कर्म- तथा कर्मयोगसे कर्मयोगियोंकी अर्थात् कर्म योगेन योगिनां कर्मिणां निष्ठा प्रोक्ता इत्यर्थः । करनेवालोंकी निष्ठा कही है। यदि च एकेन पुरुषेण एकस्मै पुरुषार्थाय यदि एक पुरुषद्वारा एक ही प्रयोजनकी सिद्धिके लिये ज्ञान और कर्म दोनों एक साथ अनुष्ठान करने ज्ञानं कर्म च समुच्चित्य अनुष्ठेयं भगवता इष्टम् योग्य हैं, ऐसा अपना अभिप्राय भगवानद्वारा गीता- उक्तं वक्ष्यमाणं वा गीतासु वेदेषु च उक्तम् । | में पहले कहीं कहा गया होता, या आगे कहा जानेवाला होता, अथवा वेदमें कहा गया होता, कथम् इह अर्जुनाय उपसन्नाय प्रियाय विशिष्ट- | तो शरणमें आये हुए प्रिय अर्जुनको यहाँ भगवान् यह कैसे कहते कि ज्ञाननिष्ठा और कर्मनिष्ठा अलग- भिन्नपुरुषकर्तृके एव ज्ञानकर्मनिष्ठे ब्रूयात् । अलग भिन्न-भिन्न अधिकारियोंद्वारा ही अनुष्ठान की जानेयोग्य हैं। यदि पुनः अर्जुनो ज्ञानं कर्म च द्वयं श्रुत्वा यदि भगवान्का यह अभिप्राय मान लिया जाय खयम् एव अनुष्ठास्यति अन्येषां तु भिन्नपुरुषा- कि ज्ञान और कर्म दोनों को सुनकर अर्जुन स्वयं ही नुष्ठेयतां वक्ष्यामि इति मतं भगवतः कल्प्येत । दोनोंका अनुष्ठान कर लेगा,दोनोंको भिन्न-भिन्न पुरुषों- द्वारा अनुष्ठान करनेयोग्य तो दूसरोंके लिये कहूँगा। तदा रागद्वेषवान् अप्रमाणभूतो भगवान् : तब तो भगवान्को रागद्वेषयुक्त और अप्रामाणिक कल्पितः स्यात् । तत् च अयुक्तम् । मानना हुआ । ऐसा मानना सर्वथा अनुचित है। तसात् कया अपि युक्त्या न समुच्चयो इसलिये किसी भी युक्तिसे ज्ञान और कर्मका ज्ञानकर्मणोः। समुच्चय नहीं माना जा सकता। यद् अर्जुनेन उक्तं कर्मणो ज्यायस्त्वं बुद्धेः कर्मोकी अपेक्षा ज्ञानकी श्रेष्ठता जो अर्जुनने तत् च स्थितम् अनिराकरणात् । कही थी वह तो सिद्ध है ही, क्योंकि भगवान्ने उसका निराकरण नहीं किया । तस्याः च ज्ञाननिष्ठायाः संन्यासिनाम् एव उस ज्ञाननिष्ठाके अनुष्ठानका अधिकार संन्यासियों- अनुष्ठेयत्वं भिन्नपुरुषानुष्ठेयत्ववचनात् च का ही है। क्योंकि दोनों निष्ठा भिन्न-भिन्न पुरुषों- द्वारा अनुष्ठान करनेयोग्य बतलायी गयी है, इस कारण भगवत एवम् एव अनुमतम् इति गम्यते ॥३॥ | भगवान्की यही सम्मति है, यह प्रतीत होता है. ॥३॥ wwwin-