पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/८९

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शांकरभाष्य अध्याय ३ मां च बन्धकारणे कर्मणि एव नियोजयसि बन्धनके हेतुरूप कर्मों में ही भगवान् मुझे इति विषण्णमनसम् अर्जुनं कर्म न आरभे इति लगाते हैं-ऐसा समझकर व्यथित-चित्त हुए और मैं एवं मन्वानम् आलक्ष्य आह भगवान् -- कर्म नहीं करूँगा, ऐसा माननेवाले अर्जुनको देखकर : 'न कर्मणामनारम्भात्' इति । भगवान् बोले---'न कर्मणामनारम्भात्' इति । अथ वा ज्ञानकर्मनिष्ठयोः परस्परविरोधाद् अथवा ज्ञाननिष्टा और कर्मनिष्टाका परस्पर विरोध होनेके कारण एक पुरुषद्वारा एक कालमें एकेन पुरुषेण युगपद् अनुष्ठातुम् अशक्यत्वे सति दोनोंका अनुष्ठान नहीं किया जा सकता। इससे इतरेतरानपेक्षयोः एव पुरुषार्थहेतुत्वे प्राप्ते- एक दूसरेकी अपेक्षा न रखकर दोनों अलग-अलग मोक्षमें हेतु है, ऐसी शंका होनेपर---- कर्मनिष्ठाया ज्ञाननिष्ठाप्राप्तिहेतुत्वेन यह बात स्पष्ट प्रकट करनेकी इच्छासे कि ज्ञान- पुरुषार्थहेतुत्वं न खातन्त्र्येण, ज्ञाननिष्ठा तु निष्ठाकी प्राप्तिमें साधन होने के कारण कर्मनिष्ठा कर्मनिष्ठोपायलब्धात्मिका सती स्वातन्त्र्येण मोक्षरूप पुरुषार्थमें हेतु है, स्वतन्त्र नहीं है; और कर्मनिष्ठारूप उपायसे सिद्ध होनेवाली ज्ञाननिष्ठा पुरुषार्थहेतुः अन्यानपेक्षा इति एतम् अर्थ अन्यकी अपेक्षा न रखकर खतन्त्र ही मुक्तिों हेतु प्रदर्शयिष्यन् आह भगवान्- है । भगवान् बोले- न कर्मणामनारम्भान्न ष्कर्म्यं पुरुषोऽदनुते । न च संन्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति ॥ ४॥ + । ! न कर्मणाम् अनारम्भाद् अप्रारम्भात् कर्मणां ! कर्मोंका आरम्भ किये बिना अर्थात् यज्ञादि कर्म क्रियाणां यज्ञादीनाम् इह जन्मनि जन्मान्तरे जो कि. इस जन्म या जन्मान्तरमें किये जाते हैं वा अनुष्ठितानाम् उपात्तदुरितक्षयहेतुत्वेन और सञ्चित पापोंका नाश करनेके द्वारा अन्तः- सत्त्वशुद्धिकारणानां तत्कारणत्वेन करणकी शुद्धिमें कारण हैं एवं पाप-कर्मोंका नाश ज्ञानोत्पत्तिद्वारेण ज्ञाननिष्ठाहेतूनाम्-'ज्ञानमु- होनेपर मनुष्योंके ( अन्तःकरणमें ) ज्ञान प्रकट होता है इस. स्मृतिके अनुसार जो अन्तःकरणकी त्पद्यते पुंसां क्षयात्यापस्य कर्मणः' ( महा० शा० शुद्धिमें कारण होनेसे ज्ञाननिष्ठाके भी हेतु हैं, २०४ । ८) इत्यादिस्सरणाद् अनारम्भाद् ! उन यज्ञादि कर्मोंका आरम्भ किये बिना-- अनुष्ठानात्- नैष्कर्म्य निष्कर्मभावं कर्मशून्यतां ज्ञानयोगेन मनुष्य निष्कर्मभावको-कर्मशून्य स्थितिको, निष्ठां निष्क्रियात्मस्वरूपेण एव अवस्थानम् इति अर्थात् जो निष्क्रिय आत्मस्वरूपमें स्थित होनारूप यावत्, पुरुषो न अश्नुते न प्राप्नोति इत्यर्थः । ज्ञानयोगसे प्राप्त होनेवाली निष्ठा है, उसको नहीं पाता। १०