पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/९५

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शांकरभाष्य अध्याय ३ ७६ पर्जन्यः- अन्नाद् भुक्ताद् लोहितरेतःपरिणतात् भक्षण किया हुआ अन्न रक्त और वीर्यके रूपमें प्रत्यक्षं भवन्ति जायन्ते भूतानि । पर्जन्याद् वृष्टः परिणत होनेपर उससे प्रत्यक्ष ही प्राणी उत्पन्न होते अन्नस्य संभवः अन्नसंभवः, यज्ञाद् भवति हैं । पर्जन्यसे अर्थात् वृष्टि से अन्नकी उत्पत्ति होती है और यज्ञसे वृष्टि होती है। अग्नौ प्रास्ताहुतिः सम्यगादित्यमुपतिष्ठते । 'अनिमें विधिपूर्वक दी हुई आहुति सूर्यमें आदित्याज्जायते वृष्टिवृष्टेरचं ततः प्रजाः ।। स्थित होती है, सूर्यसे वृष्टि होती है, वृष्टिसे अन्न होता है और अन्नसे प्रजा उत्पन्न होती है। ( मनु० ३ । ७६) इति स्मृतेः इस स्मृतिवाक्यसे भी यही बात पायी जाती है । यज्ञः अपूर्वं स च यज्ञः कर्मसमुद्भव ऋत्विग्य- ऋत्विक और यजमानके व्यापारका नाम कर्म है जमानयोः च व्यापारः कर्म ततः समुद्भवो यस्य और उस कर्मसे जिसकी उत्पत्ति होती है वह यज्ञस्य अपूर्वस्य स यज्ञः कर्मसमुद्भवः॥१४॥ । अपूर्वरूप यज्ञ कर्मसमुद्भव है अर्थात् वह अपूर्वरूप यज्ञ कर्म से उत्पन्न होता है ।।१४।। तत् च--- और उस- कर्म ब्रह्मोवं विद्धि ब्रह्माक्षरसमुद्भवम् । तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम् ॥१५॥ कर्म ब्रह्मोद्भवं ब्रह्म वेदः स उद्भवः कारणं : क्रियारूप कर्मको तू वेदरूप ब्रह्मसे उत्पन्न हुआ यस्य तत् कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि जानीहि । ब्रह्म | जान, अर्थात् कर्मकी उत्पत्तिका कारण वेद है ऐसे पुनः वेदाख्यम् अक्षरसमुद्भवम् अक्षरं ब्रह्म जान और वेदरूप ब्रह्म अक्षरसे उत्पन्न हुआ है परमात्मा समुद्भवो यस्य तद् अक्षरसमुद्भवं ' अर्थात् अविनाशी परब्रह्म परमात्मा वेदकी उत्पत्तिका ब्रह्म वेद इत्यर्थः। कारण । यस्मात् साक्षात् परमात्माख्याद् अक्षरात् वेदरूप ब्रह्म साक्षात् परमात्मा नामक अक्षरसे . पुरुषनिश्वासवत् समुद्भूतं ब्रह्म, तस्मात् सर्वार्थ- पुरुषके निश्वासकी भाँति उत्पन्न हुआ है, इसलिये वह सब अर्थोंको प्रकाशित करनेवाला होने के कारण सर्वगत है। सर्वगतम् अपि सत् नित्यं सदा यज्ञविधि- तथा यज्ञ-विधिमें वेदको प्रधानता होने के कारण प्रधानत्वाद् यज्ञे प्रतिष्टितम् ॥ १५॥ वह सर्वगत होता हुआ ही सदा यज्ञमें प्रतिष्ठित है ।१५। प्रकाशकत्वात् सर्वगतम् | एवं.. प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह यः । अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति ॥१६॥