पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/९८

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८२ श्रीमद्भगवद्गीता प्रयोजननिमित्त क्रियासाध्यो व्यपाश्रयो। किसी फलके लिये (किसी प्राणिविशेषका) जो व्यपाश्रयणम् । कञ्चित् भूतविशेषम् आश्रित्य क्रियासाध्य आश्रय है उसका नाम अर्थ-व्यपाश्रय है सो न साध्यः कश्चिद् अर्थः अस्ति । येन तदर्था इस आत्मज्ञानीको, किसी प्राणिविशेषका सहारा लेकर कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं करना है जिससे कि उसे क्रिया अनुष्ठेया स्यात् । तदर्थक किसी क्रियाका आरम्भ करना पड़े। न त्वम् एतस्मिन् सर्वतः संप्लुतोदकस्थानीये परन्तु तू इस सत्र ओरसे परिपूर्ण जलाशय- सम्यग्दर्शने वर्तसे ॥१८॥ स्थानीय यथार्थ ज्ञानमें स्थित नहीं है ।।१८।। यत एवम् जब कि ऐसी बात है- तस्मादसक्तः सततं कार्य कर्म समाचर । असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पूरुषः ॥ १६ ॥ तस्माद् असक्तः सङ्गवर्जितः सततं सर्वदा कार्य, इसलिये तू आसक्तिरहित होकर कर्तव्य-नित्य कर्तव्यं नित्यं कर्म समाचर निर्वतय । असक्तो कोंका सदा भलीभाँति आचरण किया कर। क्योंकि हि यस्मात् समाचरन् ईश्वरार्थ कर्म कुर्वन् अनासक्त होकर कर्म करनेवाला अर्थात् ईश्वरार्थ परं मोक्षम् आमोति पूरुषः सत्त्वशुद्धिद्वारेण | कर्म करता हुआ पुरुष, अन्तःकरणकी शुद्धिद्वारा इत्यर्थः ॥१९॥ मोक्षरूप परम पद पा लेता है ॥१९॥ यस्मात् च-- | एक और भी कारण है-- कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः । लोकसंग्रहमेवापि संपश्यन्कर्तुमर्हसि ॥ २०॥ कर्मणा एव हि यस्मात् पूर्वे क्षत्रिया विद्वांसः क्योंकि--पहले जनक-अश्वपति प्रभृति विद्वान् संसिद्धिं भोक्षं गन्तुम् आस्थिताः प्रवृत्ता जनका- क्षत्रिय लोग कोद्वारा ही मोक्ष-प्राप्तिके लिये दयो जनकाश्वपतिप्रभृतयः। प्रवृत्त हुए थे। यदि ते प्राप्तसम्यग्दर्शनाः ततोलोकसंग्रहार्थ यहाँ इस श्लोककी व्याख्या इस प्रकार करनी चाहिये कि यदि वे जनकादि, यथार्थ ज्ञानको प्राप्त प्रारब्धकर्मस्वात् कर्मणा सह एव असंन्यस्य एव हो चुके थे तब तो वे प्रारब्वकर्मा होनेके कारण कर्म संसिद्धिम् आस्थिता इत्यर्थः । अथ अप्राप्त- | लोकसंग्रहके लिये कर्म करते हुए ही अर्थात् संन्यास सम्यग्दर्शना जनकादयः तदा कर्मणा सत्त्व- ग्रहण किये बिना ही परम सिद्धिको प्राप्त हुए, और यदि वे जनकादि यथार्थ ज्ञानको प्राप्त नहीं शुद्धिसाधनभूतेन क्रमेण संसिद्धिम् आस्थिता । थे, तो वे अन्तःकरणकी शुद्धिके साधनरूप कर्मों- इति व्याख्येयः श्लोकः । से क्रमशः परम सिद्धिको प्राप्त हुए ।