पृष्ठ:संकलन.djvu/१३

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विष अमृत हो जाता है और अमृत विष! अथवा निर्दयी ब्रह्मा ने मेरे दुर्दैव के कारण इस माला से वज्र का-सा काम लिया। क्योंकि उसने पेड़ को तो नहीं, किन्तु उसकी आश्रित लता को मार गिराया! हे प्रिये! मैंने मन से भी कभी तेरे प्रतिकूल कोई काम नहीं किया। फिर तू क्यों मुझे छोड़े जाती है? पृथ्वी का पति तो मैं केवल शब्दगत -- अर्थात् कहने ही भर को -- था; पति तो मैं केवल तेरा था; तुझी में मेरी पूर्ण प्रीति थी। रात को, भौरों का शब्द जिनमें बन्द हो गया है, ऐसे मुकुलित कमल के समान, वायु से हिलती हुई अलकोंवाला यह तेरा मौन मुख मेरे हृदय के टुकड़े टुकड़े किये डालता है। निशा फिर भी निशानाथ को मिलती है; बिछोह हो जाने पर फिर भी चक्रवाकी चक्रवाक के पास पहुँचती है। इसी लिए वे अपने अपने विरह को किसी प्रकार सह भी लेते हैं। परन्तु, तू तो मुझे हमेशा के लिए छोड़ गई। फिर क्यों न मेरे शरीर में दुःसह दाह उत्पन्न हो? नये नये पल्लवों के कोमल बिछौने पर भी तेरा मृदुल अङ्ग दुखने लगता था। अतएव, तू ही कह, किस प्रकार तू इस विषम चिता पर चढ़ना सहन कर सकेगी? हे सुन्दरी! बजते हुए नूपुरधारी तेरे चरणों का जो अनुग्रह दूसरों को दुर्लभ था, उसका स्मरण सा करता हुआ, फूल रूपी आँसुओं को बरसानेवाला यह अशोक, तेरा शोक कर रहा है। तेरे सुख में सुखी और तेरे दुःख में दुःखी ती सखियाँ, प्रतिपदा के चन्द्रमा के समान यह तेरा पुत्र,