पृष्ठ:संक्षिप्त रामचंद्रिका.djvu/१०७

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किधी मुनि शापहत, किधों ब्रह्मदोषरत, किधी सिद्धियुत, सिद्ध परम विरत है।। किधी कोऊ ठग है। ठगोरी लीन्हे, किधौं तुम ने ' हरि हर श्री है। शिवा चाहत फिरत है॥२३॥ Mah [मत्त-मातग-लीला-करन दडक ]ni - मेध-मंदाकिनी चारु सौदामिनी विकत • रूप रूरे लसै देहधारी मनौ। भूरि भागीरथी भारती हसजा) अस के हैं मनौ भाग भारे मनौ ॥ देवराजा लिये देवरानी मनौ पुत्र संयुक्त भूलोक मे साहिए । पूलच्छ दूसधि सध्या सधी है मनौ लच्छि ये स्वच्छ प्रत्यच्छ ही मोहिए ॥२४॥ 12 , [अन गशेखर दडक ] तडाग नीर-हीन ते सनीर होत केसौदास 6.पुडरीक-झुड. भौंर-मडलीन मडहीं। तमाल वल्लरी समेत सूखि सूखि के रहे ते बाग फूलि फूलि के समूल सूल खडहीं। चितै चकोरनी चकोर, मोर मोरनी समेत हस हसिनी समेत, सारिका सवै पढ़े। (१) मदाकिनी = आकाश-गंगा।