पृष्ठ:संक्षिप्त रामचंद्रिका.djvu/१०८

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( ५८ ) जहीं जहीं विराम लेत रामजू तहीं तहीं अनेक भाँति के अनेक भोग भाग सो बढ़े ।।२५।। [सुंदरी छद] घाम को राम समीप महाबल । सीतहि लागत है अति सीतल ।। ज्यौं धन-संयुत दामिनि के तन । होत है पूषन , के कर' भूषन ॥२६।। मारग की रज तापित है अति । केशव सीतहि सीतल लागति ॥ ज्यौं पद-पकज ऊपर पायनि । १० दै जो चलै तेहि ते सुखदायनि ॥२७॥ दो०] प्रति पुर औ' प्रति ग्राम की, प्रति नगरन की नारि । सीताजू को देखिकै, बरनत है सुखकारि ॥२८॥ [जगमोहन दंडक ] वासों मृग-अक कहै, तोसे मृगनैनी सब, वह सुधाधर, तुहूँ सुधाधर मानिए। । । वह द्विजराज, तेरे द्विजराजि राजै, वह ११ कलानिधि, तुहूँ कला-कलित बखानिए ॥ रत्नाकर के है दोऊ केसव प्रकास कर, " । अबर विलास कुवलय हित मानिए । Ac) (१) पूषन के कर = सूर्य की किरणों।