पृष्ठ:संक्षिप्त रामचंद्रिका.djvu/११०

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(६० ) [विजय छौंद] , लहु बाग तडाग तरगनि तीर तमाल की छाँह बिलो कि भली । घटिका इक बैठत हैं सुख पाय बिछाय तहाँ कुस कास थली ।। मग को श्रम श्रीपति दूरि करै सिय के सुभ बाकल अचल सौं। -2 श्रम तेऊ हरै तिनको कहि केशव चचल चारु हगचल सौं ॥३३॥ [ सो०] श्री रघुबर के इष्ट, अश्रु-वलित सीता-नेयन । र साँची करी अदृष्ट, झूठी उपमा मीन की ॥३४) [ दो०] मारग यौं रघुनाथ जू, दुख सुख सबही देत । ५५ चित्रकूट पर्वत गये, सोदर सिया समेत ॥३५॥ भरत प्रत्यागमन [ दोधक छद] आनि भरत्त पुरी अवलोकी। थावर जगम जीव ससेोकी । भाट नहीं विरदावलि साजै । कुजर गाजै न दुदुभि बाजै ॥३६॥ राजसभा न विलोकिय कोऊ ।