पृष्ठ:संक्षिप्त रामचंद्रिका.djvu/११५

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M ) ( ६५ ) भुव हालति जानि अकास हिये । जनु थभन ठौरनि ठौर किये ॥ ५४॥

1 [तारक छौंद]

रन राजकुमार अरूझहिंगे जू। अतिसम्मुख घायनि जूझहिंगे जू ॥5॥ (जन ठौरनि ठौरनि भूमि नवीने । । तिनके चढ़िबे कहँ मारग कीने ॥ ५५॥ - [तोटक छ द] . सीता-रहि पूरि विमाननि व्योमथली । । तिनको जनु टारन धूरि चली ।। परिपूरि अकासहिं धूरि रही। सु गयो मिटि सूर प्रकास सही ।। ५६ ॥ [दो०] अपने कुल को कलह क्यों, देखहिं रवि भगवत । यहै जानि अ तर कियौ, माना मही अनत ॥५७ ।। 3 1145205 [ तोटक छ द1 बहु तामहँ दीह पताक लसै। जनु धूम मै अग्नि की ज्वाल बसे ।। रसना किधी काल कराल घनी । किधौं मीचु नचै चहुँ ओर बनी ।। ५८ ॥ [दो०] देखि भरत की चल ध्वजा, धूरिन मे सुख देत । युद्ध जुरन को मनहुँ प्रति-योधन बोले लेत ॥५९ ।।