पृष्ठ:संक्षिप्त रामचंद्रिका.djvu/१२८

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पर सतया.] छबि देखत ही मन मदन मथ्यो तनु शूर्पणखा तेहि काल | अति सुदर तनु करि कछु धीरज धरि बोली वचन रसाल ॥३२॥ शूर्पणखा- पिक्षिा मिता किन्नर हौ नर रूप विच्छन, यच्छ कि स्वच्छ सरीरनि सोहौ। चित्त-चकोर के चद किधौं, मृग-लोचन चारु विमाननि रोहो' । अग धरे कि अनग हौ केसव अगी अनेकन के मन मोहौ। वीर जटानि धरे धनु-बान, लिये वनिता वन मे तुम को है। ॥३३॥ [मनोरमा छद] राम -हम है दशरथ महीपति के सुत । शुभ राम सुलक्ष्मण नामन सयुत ॥ यह शासन दै पठये नृप कानन । मुनि पालहु मारहु राक्षस के गन ।। ३४ ॥ शूर्पणखा-नृप रावण की भगिनी गनि मोकहँ या जिनकी ठकुराइति तीनहु लोकहँ ।। सुनिजै दुखमोचन पकजलोचन । अब मोहिं करो पतिनी मन रोचन ॥ ३५ ॥ [तोमर छद] तब यों कह्यो हँसि राम । अब मोहिं जानि सबाम ।। तिय जाय लक्ष्मण देखि । सम रूप यौवन लेखि ।। ३६ ॥ (१) रोहौ= आरोहण करते हो, सवार हो जाते हो।