( ४) हा पुत्र लक्ष्मण छोड़ावहु वेगि मोहि । मार्तडवश-यश की सब लाज तोहि ॥१९॥ पक्षी जटायु यह बात सुन त धाइ । रोक्यो तुरत बल रावण दुष्ट जाइ ॥ कीन्ही प्रचंड रथ छत्र ध्वजा विहीन । छोड़यो विपक्षि तब भो जब पक्षहीन ॥६०॥ __ [सयुता छद] दशकठ सीतहि लै चल्यो । अति वृद्ध गीधहि यों दल्यो । चित जानकी अधकों कियो । हरि तीनिद्वै अवलोकियो ।।६१॥ पद-पद्म की शुभ घूघरी । मणिनील-हाटक सों जरी। जुत उत्तरीय' विचारि कै । शुभ डारि दीन गँठारि कै ॥६२।। पदो०] सीता के पद पद्म कौ, नूपुर पट जनि जानु । र मनहुँ करयो सुग्रीव घर, राजश्री-प्रस्थानु ॥६॥ ran राम-विलाप [सवैया] निज देखौं नहीं शुभ गीतहि सीतहि कारण कौन कहौ अबहीं। अति मोहित के बन मॉझ गई सुर मारग मै मृग मारयो जहीं ॥ कटु वात कछू तुमसौ कहि आई किधौं तेहि त्रास डेराइ रही। (अब है यह पर्णकुटी किधौ और किधौ वह लक्ष्मण होइ नही ।।६४|| (१) उत्तरीय = ओढनी।
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