पृष्ठ:संक्षिप्त रामचंद्रिका.djvu/१३५

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( ८५ ) राम-जटायु-संवाद [ देधिक छ द] धीरज सौं अपना मन रोक्यो । गीध जटायु पर्यो अवलोक्यो । छत्र ध्वजा रथ देखि के बूझेउ । गीध कहौ रण कौन सों जूझेउ ? ॥६५।। जटायु-रावण लै गयो राधव सीता। 'हा रघुनाथ" रटै शुभ गीता ॥ मै बिन छत्र ध्वजा रथ कीन्हौं । है गयो हैं। बल-पक्ष-विहीनौ ॥६६।। राम-साधु जटायु सदा बडभागी। तो मन मा बपु सो अनुरागी॥ छूट्यो शरीर सुनी यह बानी । रामहि मैं तब ज्योति समानी ॥६७।। [तोटक छ द] दिशि दक्षिण को करि दाह चले । सरिता गिरि देखत वृक्ष भले ॥ वन अध कबध विलोकतहीं। . दोउ सोदर खैच लिये तबहीं ॥६८॥ कबंध-वध जब खैबेहि को जिय बुद्धि गुनी । दुहुँ बाणनि लै दोउ बाहिं हनी ॥