पृष्ठ:संक्षिप्त रामचंद्रिका.djvu/१६९

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विभीषण शरणागमन

[ सवैया ]
दीनदयालु कहावन केसव,हौं अति दीन दशा गह्यो गाड़ो।
रावन के अघ-ओघ-समुद्र में चूड़त हैं। कर ही गहि काड़ो।।
व्यौं गज की प्रहलाद बी कीरति त्यौंही विभीषण को यस बाड़ो।
भारत बंधु पुकार सुनौ किन.आरत हो तौ पुकारत ठाड़ो ।।३।।
केसव आपु सदा मह्यो दुन्न पे दामन देखि सब्तै न दुखारे ।
जाकों भयो जेहि भांति जहाँ दुख त्यौंही तहाँ तिहि भाँति पवारे।।
मेरिय बार अवार कहा, कहूँ नाहि तू काहु के दोष विचारे ।
बूड़त है। महा-मोह मनुद्र मैं,राखत काहे न गवनहारे ? ॥४।।
[ दरिलीला चंद ]
श्री रामचंद्र अति आरतवंत जानि ।
लीन्हो बोलाय शरणागत सुःखदानि ॥
लंकेश आउ चिरजीवहि लंक धाम ।
राजा कहार लौं लगि जन रांम नाम ।। ५ ॥
सेतुबंध
[ दो० ]जंह तंह वानर सिंधु मैं,गिरिगन डारत आनि ।
शब्द रह्यो भरिपूरि महि रावन कों दुन्ननानि ॥६॥
[ तोटक छद ]
उछलै जल उच अकास चढ़ै ।
जल जोर दिना विदिसान मड़ै ।