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जनु सिंधु अकासनदी अरि के।
बहु भाँति मनावत पाँ परि कै॥७॥
बहु ब्योम बिमान तै भीजि गये।
जल जोर भये अंगरागमये॥
सुर सागर मानहु युद्ध जये।
सिगरे पट भूषन लूटि लये॥८॥
अति उच्छलि छिछि त्रिकूट छयो।
पुर रावण के जल जोर भयो।
तब लक हनूमत लाइ' दयी।
नल मानहु आइ बुझाइ लयी॥९॥
लगि सेतु जहाँ तहँ सोभ गहे।
सरितानि के फेरि प्रवाह बहे॥
पति देवनदी रति देखि भली।
पितु के घर का जनु रूसि चली॥१०॥
सब सागर नागर सेतु रची।
बरनै बहुधा युत सक्र सची॥
तिलकाल सी शुभ सीस लसै।
मनिमाल किधौं उर मैं विलसै॥११॥
[तारक छद]
उर ते सिवमूरति श्रीपति लीन्हीं।
सुभ सेतु के मूल अधिष्ठित कीन्हीं॥
(१) लाइ = आग्न। (२) फेरि = उलटे।