पृष्ठ:संक्षिप्त रामचंद्रिका.djvu/१८८

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लिए है और ऐचि ऐंचि वीर बाहु बातहीं।
भषेते अ तरिच्छ रिच्छ लच्छ लच्छ जातहीं॥९१॥

[भुजगप्रयात छद]

कुभकर्ण--न हौं ताडुका, हौ सुबाहै न मानौं।
न हौं शभु-कोदड, साँची बखानौं॥
न हौं ताल, बाली, खरे जाहि मारौ।
न हो दूषणो, सिंधु, सूधै निहारौ॥१२॥
सुरी आसुरी सुदरी भोग कणै।
महाकाल को काल हौ कुभकर्णै॥
सुनौ राम सग्राम को तोहिं बोलौं।
बढ़्यो गर्व लंकाहि आये, सो खोलौं॥९॥
उठ्यो केसरी केसरी जोर छायो।
बली बालि को पूत लै नील धायो।
हनूमत सुग्रीव सोभै सभागे।
डसै डाँस से अग मातग लागे॥९४॥
दसग्रीव को बधु सुग्रीव पायो।
चल्यो लक मै लै भले अक लायो।
हनूमंत लातै हत्यो देह भूल्यो।
छुट्यो कर्ण नाशाहि लै इन्द्र फूल्यो॥९५॥
सँभारयो घरी एक दू मै मरू के।
फिर यो राम ही सामुहै सौं गदा लै।