पृष्ठ:संक्षिप्त रामचंद्रिका.djvu/१९८

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एक गये यमलोक सहे दुख।
एक कहैं भव भूतन सौ रुख॥
एक ते सागर माँझ परे मरि।
एक गये बडवानल में जरि॥१३७॥

[मोटनक छंद]

श्रीलक्ष्मण कोप करयो जबहीं।
छोड्यो सर पावक को तबही॥
जारयो सर पजर छार करयो।
नैऋत्यन' को अति चित्त डरयो॥१३८॥
दौरै हनुमत बली बल से।
लै अंगद संग सबै दल सों॥
मानौ गिरिराज तजे डर को।
धेरै चहुँ ओर पुरदर को॥१३९॥

[हरिच्छद]

अंगद रनअ गन सब अंगन मुरझाइ कै।
ऋच्छपतिहिं अच्छरिपुहिँ लच्छगति बुझाइ कै॥
बानरगन बानन सन केसव जबही सुरयो।
रावन दुखदावन जगपावन समुहे जुरथो॥१४०॥

[ब्रह्मरूपक छंद]

इद्रजीत-जीत आनि रोकियो सुबान तानि।
छोड़ि दीन वीर बानि कान के प्रमान आनि॥



(१) नैऋत्य = राक्षस।