पृष्ठ:संक्षिप्त रामचंद्रिका.djvu/२१९

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[दो०] राग द्वेप बिन कैसहूँ, धर्माधर्म जो होइ।
हर्ष शोक उपजै न मन, कर्त्ता महा सो लोइ॥५८॥
भोज अभोजन रत विरत, नीरस सरस समान।
भोग होइ अभिलाष बिन, महा भोगता मान॥५९॥
जो कछु आँखिन देखिए, बाणी बर्ण्यो जाहि।
महातियागी जानिए, झूठो जानै ताहि॥६०॥
[तोमर छद]
जिय ज्ञान बहु ब्यौहार। अरु योग भोग बिचार॥
यहि भाँति होइ जो राम। मिलिहैं सो तेरे धाम॥६१॥
[सवैया]
निशि-बासर बस्तुबिचार करै मुख साँच हिये करुना धनु है।
अघ निग्रह सग्रह धर्मकथा सु-परिग्रह साधन को गनु है॥
कहि केसव योग जगै हिय भीतर बाहेर भोगन सो तनु है।
मन हाथ सदा जिनके तिनको बन ही घर है, घर ही बनु है॥२॥
[दो०] लेइ जो कहिए साधु अन-लीन्हे कहिए बाम।
सबकौ साधन एक जग, राम तिहारौ नाम॥६३॥
[तामरस छंद]
जब सब वेद पुरान नसैहै। जप तप तीरथहू मिटि जैहैं।
द्विज सुरभी नहिं कोउ बिचारै। तब जग केवल नाम उधारै॥६४॥
[दो०] मरनकाल कासी विषे, महादेव निजधाम।
जीवन को उपदेसिहैं, रामचद्र को नाम॥६५॥