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पृष्ठ:संक्षिप्त रामचंद्रिका.djvu/२२१

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[पद्धटिका छंद]
मृगमद मिलि कुकुम सुरभिनीर।
घनसार सहित अ वर उसीर॥
वसि केशरि सो बहु विविध नीर।
छिति छिरके चर थावर सरीर॥७४॥
बहु वर्णं फूल फल दल उदार।
तहँ भरि राखे भाजन अपार॥
तहँ पुष्प वृक्ष सोभै अनेक।
मणिवृक्ष स्वर्ण के वृक्ष एक॥७५॥
तेहि उपर रच्यो एकै वितान।
दिवि देखत देवन के विमान॥
दुहुँ लोक होत पूजा-विधान ।
अरु नृत्य गीत वादिन गान॥७६॥
तर ऊमरि को आसन अनूप।
वहु रचित हेममय विश्वरूप॥
तहँ बैठे आपुन आइ राम।
सिय सहित, मनौ रति रुचिर काम॥७७॥
जनु घन दामिनि आन द देत।
तरुकल्प कल्पवल्ली समेत॥
है कैधौ विद्या सहित ज्ञान।
कै तपसयुत मन सिद्धि जान॥७८॥


(१) एक = अपूर्व। (२) ऊमरि = गूलर।