पृष्ठ:संक्षिप्त रामचंद्रिका.djvu/२२६

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[चौपाई]
होम धूम मलिनाई जहाँ। अति चचल चलदल है तहाँ॥
बाल-नाश है चूडाकर्म्म। तीक्षणता आयुध के धर्म्म॥१००॥
लेत जनेऊ भिक्षा दानु। कुटिल चाल सरितानि बखानु।
व्याकरणै द्विज वृत्तिन हरै। कोकिलकुल पुत्रन परिहरै॥१०॥
फागुहि निलज लोग देखिए। जुवा देवारी को लेखिए।
नित उठि बेझोई मारिए। खेलत मे केहूँ हारिए॥१०२॥
[दडक]
भावै जहाँ बिभिचारी, वैद्य रमैं परनारी,
द्विजगन दडधारी, चोरी परपीर की।
मानिनीन हीं के मन मानियत मान भग,
सिंधुहि उलघि जाति कीरति शरीर की।
मूलै तौ अधोगतिन पावत हैं केसोदास,
मीचु ही सो है बियोग इच्छा गगानीर की।
बध्या बासनानि जानु, बिधवा सुबाटिकाई,
ऐसी रीति राजनीति राजै रघुबीर की॥१०३॥
[दो०] कविकुल ही के श्रीफलन, उर अभिलाष समाज।
तिथि ही को क्षय होत है, रामचंद्र के राज॥१०४॥
[दंडक]
लूटिबे के नाते पाप पट्टनै तौ लूटियतु,
तोरिबै को मोहतरु तोरि डारियतु है।