पृष्ठ:संक्षिप्त रामचंद्रिका.djvu/२५७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
(२०७)

बहुत युद्ध भो भरत सों, देव अदेव संसान ॥
मोहि महारथ पर गिरे, मारे मोहन बान ॥२६३॥
राम-कुश-संवाद

[दो०] भरतहि भयौ विलब क्छु, आये श्रीरघुनाथ।
देख्यौ वह सग्रामथल, जूझ परे सब साथ ॥२६४॥
[ तोटक छंद ]
रघुनाथहि आवत आइ गये। रन मैं मुनिबालक रूप रये ॥
गुन रूप सुसीलन सौ रन मैं। प्रतिबिंब मनौ निज दर्पन मैं ॥२६५॥
[ मधुतिलक छंद ]
सीता समान मुखचद्र विलोकि रामय
बूझ्यो कहाँ बसत हौ तुम कौन ग्राम ॥
माता पिता कवन कौनेहि कर्म कीन ।
विद्याविनोद शिष कौनेहि अस्त्र दीन ॥२६६॥
[ रूपमाला छं द ]
कुश--राजराज तुम्हें कहा मम बस सौं अब काम ।
बूझि लीन्हेहु ईस लोगन जीति कै सग्राम ॥
राम--हौं न युद्ध करौं कहे बिन विप्रवेष विलोकि ।
वेगि वीर कथा कहौ तुम आपनी रिस रोकि ॥२६७॥
कुश--कन्यका मिथिलेश की हम पुत्र जाये दोइ ।
बालमीक अशेष कर्म करे कृपारस भोइ॥