पृष्ठ:संक्षिप्त रामचंद्रिका.djvu/२६१

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[दो०] माता, सब काकी करी विधवा एकहि बार।
मो सी और न पापिनी, जाये वशकुठार॥२८३॥
[ दोधक छद ]
पाप कहाँ हति वापहि जैहौ।
लोक चतुर्दश ठौर न पैहो॥
राजकुमार कहै नहिं कोऊ।
जारज जाइ कहावहु दोऊ॥२८४॥
कुश--मो कहँ दोष कहा सुनु माता।
बाँधि लियो जो सुन्यो उन भ्राता॥
हौं तुमही तेहि बार पठायौ
राम पिता कब मोहिं सुनायौ॥२८५॥
[दो०] मोहिं विलोकि विलोकि कै, रथ पर पौढे राम।
जीवत छोड्यौ युद्ध मैं, माता कर विश्राम॥२८६॥
[ सुदरी छद ]
आइ गये तबहीं मुनिनायक।
श्री रघुन दन के गुनगायक॥
बात विचारि कही सिगरी कुस।
दु ख कियो मन मैं कलिअ कुस॥२८७॥
[ रूपवती छद ]
कीजै न विडबन सतति सीते।
भावी न मिटै सु कहूँ जगगीते॥