के हृदय की भाँति उनका हृदय आनद से नाच नहीं उठता। प्रकृति के सौंदर्य से उनका हृदय द्रवीभूत नहीं होता। उनके हृदय का वह विस्तार नहीं है जो प्रकृति मे भी मनुष्य के सुख- दुःख के लिये सहानुभूति हूँढ सकता है, जीवन का स्पदन देख सकता है, परमात्मा के अतर्हित स्वरूप का आभास पा सकता है। फूल उनके लिये निरुद्देश्य फूलते है, नदियाँ बे- मतलब बहती हैं, वायु निरर्थक चलती है। प्रकृति मे वे कोई सौंदर्य नहीं देखते। बेर उन्हे भयानक लगती है, वर्षा काली का स्वरूप सामने लाती है और उदीयमान अरुणिमामय सूर्य कापालिक के शोणित भरे खप्पर का स्वरूप उपस्थित करता है । प्रकृति की सुदरता केवल पुस्तका में लिखी सुदरता है। सीताजी के वीणावादन से मुग्ध होकर घिर आए हुए मयूर की शिखा, सूए की नाक, कोकिल का कठ, हरिणी की आँखे, मराल के मद मद चाल चलनेवाले पाँव इसलिये उनके राम से इनाम नहीं पाते कि ये चीजे वस्तुतः सुदर हैं बल्कि इसलिये कि कवि इन्हें परपरा से सुदर मानते चले आए हैं, नहीं तो इनमे कोई सुदरता नहीं। इसी लिये सीताजी के मुख को प्रशसा करते हुए वे कह गए हैं-
- कवरी कुसुमालि सिखीन दयो । गजकुभनि हारनि शोभमयीं ।
मुकुता शुक सारिक नाक रचे । कटि-केहरि किकिणि शोभ सचे। दुलरी कल कोकिल कठ बनी । मृग खजन अजन भॉति ठनी। नृप-हसनि नूपुर शोभ गिरी । कल हसनि कठनि कठसिरी।