( २२ ) जनक- सो०] जिन अपनो तन स्वर्ण, मेलि तपोमय अग्नि मैं । ___ कीन्हों उत्तमवर्ण, तेई विश्वामित्र ये ॥१०२॥ [मोहन छद] लक्ष्मण-जनराजवत । जगयोगवत । । तिनको उदोत । केहि भांति होत ॥१०३।। " (श्रीराम- [विजय छद] सब छत्रिन आदि दै काहु छुई न छुये बिजनादिक बात डगै । न घटै न बढ़े निशि बासर केशव लोकन को तमतेज भगै। भवभूषण! भूषित होत नहीं मदमत्त गजादि मसी न लगे। जलहूँ थलहूँ परिपूरण श्री, निमि के कुल अद्भुत ज्योति जगै ॥१०॥ [तारक छद] जनक-यह कीरति और नरेशन सोहै। ।। सुनि देव अदेवन को मन मोहै।।
- \ हम को बपुरा सुनिए ऋषिराई।
सब गाउँ छ सातक को ठकुराई ॥ १० ॥ विश्वामित्र- [विजय छद] आपने आपने ठौरनि तौ भुवपाल सबै भुव पालै सदाई । केवल नामहि के भुवपाल कहावत हैं भुव पालि न जाई । भूपति की तुमहीं धरि देह विदेहन मे कल कीरति गाई । 'केशव भूपन को भवि' भूषण भू तन ते तनया उपजाई ॥१०६॥ (१) भवभूषण == शिवजी का अल कार; राख । (२) मसी = ( गर्व की । कालिमा। (३ ) भवि= भव्य ।