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[स्वागता छंद ]
-राजपुत्रिकनि सो छबि छाये । राज राज़ सब डेरहि आये। हीर चीर गज वाजि लुटाये । सुदरीन बहु मगल गाये ॥१३१
शिष्टाचार
[सो०] वासर चौथे याम, सतान द आगू दिये।। दशरथ नृप के धाम, आये सकल विदेह बनि ॥१३२॥ [दो०] आगे है दशरथ लियो, भूपति आवत देखि । राजराज मिलि बैठियो, ब्रह्मब्रह्म ऋषि लेखि ॥१३३॥
जनक-
[सवैया]
सिद्ध समाज सजै अजहूँ न कहूँ जग योगिन देखन पायी 'रुद्र के चित्त समुद्र बसै नित ब्रह्महु पै बरणी जो न जायी रूप न रग न रेख विसेख अनादि अन त जो वेदन गायी केवल गाधि के न द हमै वह ज्योति सो मूरतिवत देखायी ॥१३४
[तारक छद]
जिनके पुरिषा भुव गगहि ल्याये । नगरी शुभ म्वर्ग सदेह सिधाये ।। जिनके सुत पाहन ते तिय कीनी । हर को धनुभग भ्रमे पुर तीनी ॥१३५।। .. जिन आपु अदेव अनेक सँहारे। सब काल पुरदर के रखवारे । जिनकी महिमाहि अनत न पायो । ' • “हम को बपुरा, यश वेदनि गायो ॥१३६॥