( २९ ) बिनती करिए, जन जो जिय लेखो। । दुख देख्यो ज्यों काल्हि,त्या आजहु देखो। यह जानि हिये ढिठई मुख भाषी। हम हैं चरणोदक के अभिलापी ॥१३७॥ [तामरस छद] जब ऋषिराज विनय करि लीना। । सुनि सब के करुणा रस भीनो । दशरथ राय यहै जिय जानी । यह वह एक भई रजधानी ॥१३८।। दशरथ-[दो०] हमको तुम से नृपति की, दासी दुर्लभ राज । पुनि तुम दीनी कन्यका, त्रिभुवन की सिरताज ॥१३९।। वसिष्ठ- [विजय छद] एक सुखी यहि लोक बिलोकिए है वहि लोक निरैः पगु धारी। एक इहाँ दुख देखत केशव होत वहाँ सुरलोक-विहारी । एक इहाँऊ उहाँ अति दीन सेा देत दुहूँ दिशि के जन गारी । एकहि भाँति सदा सब लोकनि है प्रभुता मिथिलेश तिहारी ॥१४॥ जाबालि- ज्यों मणि मे अति ज्योति हुती रवि ते कछु और महाछबि छायी। चद्रहिं वदत है सब केशव ईश ते वदनता' अति पायी ।। (१) निरै = निरय, नरक । (२) वदनता = वदनीयता, वदन किए जाने की योग्यता ।
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