पृष्ठ:संक्षिप्त रामचंद्रिका.djvu/८१

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वह हरी हठि हिरनाच्छ दैयत देखि सु दर देह सो। वरवीर यज्ञवराह पर ही लयी छीनि सनेह सो। है गई बिहवल अग पृथु फिरि सजे सकल सिँगार जू । पुनि कछुक दिन वश भयी ताके लियो सरवसु सार जू॥१४६॥ वह गयो प्रभु परलोक, कीन्हों हिरणकस्यप नाथ जू । । तेहि भाँति भॉतिन भोगियो भ्रमि पल न छोड्यो साथ जू । वह असुर श्रीनरसिंह मार्यो लई प्रबल छंडाइ के। लै दई हरि हरिचद राजहिं बहुत जो सुख पाइ कै ॥१४॥ हरिचद विश्वामित्र को दयी दुष्टता जिय जानि के। तेहि वरो बलि परिवड वर ही, विप्र तपसी जानि के। वलि बाँधि छल बल लयी बावन, दयी इंद्रहि आनि के। तेहि इंद्र तजि पति को अजुन सहस भुज को जानि के ॥१४८॥ तब तासु छवि मद छक्यो अर्जुन हत्या ऋषि जमदग्नि जू । परसुराम सो सकुल जार्यो प्रबल बल की अग्नि जू । तेहि बेर तवहीं सकल छत्रिन मारि मारि वनाइ के। इकवीस बेरा दयी विप्रन रुधिर जल अन्हवाइ कै॥१४९॥ वह रावरे पितु करी पत्नी तजी विप्रन यूँ कि के। अरु कहत हैं सब रावणादिक रहे ताकहँ ढूँकि कै'। यहि लाज मरियत, ताहि तुम से भयो नाता नाथ जू । अब और मुग्व निरखै न ज्यो त्यो राखियो रघुनाथ जू ॥१५०॥ (१) रहे ताकहें हूँ कि कै = उसकी ताक लगाए हैं, उसे लेने को ताक में हैं।