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पृष्ठ:संक्षिप्त रामचंद्रिका.djvu/८२

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( ३२ ) बरात बिदाई [सो०] प्रात भये सब भूप, बनि बनि मडप मे गये । जहाँ रूप अनुरूप, ठौर ठौर सब सोभिजे ॥ १५१॥ [नाराच छद] रची विरचि वास सी निथबराजिका भली। जहाँ तहाँ बिछावने बने घने थली थली। वितान श्वेत श्याम पीत लाल नील के रँगे। मनो दुहूँ दिसान के समान बिंब से जगे ॥ १५२ ॥ / [पद्धटिका छंद] . गज- मोतिन की अवली अपार । तहँ कलशन पर उरमति सुढार। (सुभ पूरित रति जनु रुचिर धार। - जहँ तहँ अकास गगा उदार ॥ १५३ ॥ गजदतन' की अवली सुदेश । तहँ कुसुमराजि राजति सुवेस । । । । सुभ नृप कुमारिका करति गान | जनु देविन के पुष्पक विमान ॥ १५४ ॥ तामरस छद] इत उत शोभित सु दरि डोले । अर्थ अनेकनि बोलनि बोले । ( १ ) गजदंतन = टोड़ा।