पृष्ठ:संक्षिप्त रामचंद्रिका.djvu/८४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

( ३४ ) [दो०] यदपि भृकुटि रघुनाथ की, कुटिल देखियत ज्योति । तदपि सुरासुर नरन की, निरखि शुद्ध गति होति ।।१६१॥ स्रवन मकर-कुडल लसत, मुख सुखमा एकत्र । .) 'ससि समीप सोहत मनो, सवन मकर नक्षत्र ।।१६२।। . [पद्धटिका छंद] अति वदन सोभ सरसी 'सुरग। . तहँ कमल नयन नासा तरग। जनु युवति चित्त विभ्रम विलास ।। तेइ भ्रमर भँवत रस रूप पास ॥१६३॥ - [निशिपालिका छद] सोभिजति दंतरुचि सुभ्र उर आनिए। सत्य जनु रूप अनुरूपक बखानिए । . ओंठ रुचि रेख सविसेख़ सुभ श्रीरये।। सोधि जनु ईस शुभ लक्षण सबै.दये ॥१६४॥ [दो०] ग्रीवा श्रीरघुनाथ की, लसति कबुवर वेख । २० ‘साधु मनो बच काय, की, मानो लिखी त्रिरेख ॥१६५। ।। ।' [सुदरी छद ] सोभन दीरघ बाहु विराजत । | देव सिहात, अदेव ते लाजत । वैरिन को अहिराज बखानहु । है हितकारिन की ध्वज मानहु ॥१६६।। .-1 - Trana | 1-1 are - नामों को सानि । 110