पृष्ठ:संक्षिप्त रामचंद्रिका.djvu/९१

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? (16 हम पर कीजत रोस कालगति जानि न जायी । होनहार है रहै मिटै मेटी न मिटायी। होनहार ह रहै मोह मद सब को छूटै । होइ तिनूका वज्र, वज्र तिनुका है टूटै ॥ १९३ ॥ [विजय छद ] 12655 परशुराम–केसव हैहयराज, को मास · : - हलाहल कौरन खाइ लियो रे। तालग्रिमेद महीपन को घृत घोरि दियो न सिराना हियो रे। खीर' खडानन को मद केसव सो पल में करि पान लियो रे । तो ली नहीं सुख जो लहुँ तू रघुबस को सोन-सुधा न पियो रे ॥ १९४ ॥ [तत्री छद । भरत-बोलत कैसे भृगुपति सुनिए सो कहिए तन मन वनि आव।। आदि बड़े हो बडपन राखौ जाते तुम सब जग यश पावा ॥ चदनहूँ मे अति तन, घसिए आगि उठै यह गुनि सब लीजै । (१) खीर = (क्षीर) दूध ।