रामस्वयंबर. यौं कहिकै प्रिय बंधु सों राम चले गिरिजामनि-मंदिर ओरे । दूरहि ते दोउ देखि सखोगन ठाढ़े भये मन में भये भोरे । श्रीरघुगज कह्यो मुरिकै लत्रि सुंदरी बंद अनंद हिलोरे । आगे न जात वनै अघतात सखीनको व्रात दिखात करोरे ॥५४६॥ जैवो न लायक लाल उतै परदारन के विच धर्म विचारी। आये इतै मुनि शासन लै नहिं जानी रही मरजाद हमारी॥ रीति है धर्मधुरीनन की रघुवंसिन की जग जाहिर भारी। पोठि परै नहि संगर में नहिं दीठि परैस्वपन्यो परनारी ॥५४७॥ जिहि हेत अनेकन भूप अनूप स्वरूप बनाइकै वार्गे गली। जिहि हेत कियो मिथिलेस प्रने जुमहेस के चापको तोरै चली। लहै तीन स्वयंवर में दुहिता विजयी तिहि कीरति विश्व चली। सुकुमारि महामनहारिगुनी यह सोइ बिसेपिविदेहलली॥५४८॥ आवत ही लखि नेसुकताकि लखीनहिं आँखिन में अस सोभा। सारद सेस महेस गनेस न भापि सके उर राखिकै सोभा ॥ श्रीरघुराज सुनो सहजै मन मेरो पुनीत सोऊ लखि लोभा। छोड़ि कहौं छलछंदन को असमाजुलौंछोनि में चित्तन छोभा५४९ छमन लाल सुनो रघुराज पढ़े उर लाज कदै मुख बाता। प्राकसमात गत न आनंद मानद होइगो कौन विख्याता ॥
- । छन दच्छिन वाहु बिलोचन क्यों फरक कछु जानिन जाता।
कीन्यो विचार मनै बहु बारन सोसब कारनजानै विधाता ॥५५०॥ (दोहा) । अस कहि रघुपति लपन लो कियो कुंज विश्राम । ।