पृष्ठ:संक्षिप्त रामस्वयंवर.djvu/११५

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रामस्वयबर। तरु छाया सीरी धनी कुसुम-गुच्छ अभिराम ॥५५॥ उत मंदिर अंदर गई पूजन राजकुमारि ।। 'खड़ी रही बाहर सखी चमर छत्र कर धारि॥५५२॥ .' . . (चौपाई) . सहजहिं तह मालिनि इक आई। देखी रही लषन रघुराई । सखी पानि पंकज गहि बोली । अपने उर की आसय खोली। को सुंदर जुग राजकिसोरे। आय वाग मह फूलन तारे ॥ इतनी वयस सिरानि हमारी । अस सोभा नहिं नयन निहारी॥ कहि न सकौं देखन के लायक । नाम लपन लघु, बड़ रघुनायक। मालिनि-बचन सुनत सखि काना देखन हित तिहि मन ललचाना॥ (दोहा) देखु सखी यहि कुंज में सुंदर जुगल किसोर । हरयो मोर चित, चोरि चित हरि लेहैं हठि तोर ॥५५६॥ (सवैया) '. सीय सखी मृगसायक-नैनि सुनैन उठाय लखी तिहिं ओरें। मंजुल बजुल कुंजन में चितचोर उभय अवधेस किसोरै ॥ श्रीरघुराज रुकी सो जकी पलक ठमकी ठगिकै द्वग ठोरें। चंचलासी परी चौध चईमन भूलिगयातहं मोर औतारें ॥५५७१ कौन कहै कछु कौन सुनै पुनि जोहनही ते मना जिय जीवत । अंगजहाँ के तहां ही रहे सब दीठी की सूजी मनोछबि सीवति ॥ श्रीरघुराज बिलोकतही अभिलापन इंदु उज्यारीसी ऊवति! ठादी महासुखबादी अली वह छैल छली मुख पानिपपीवति॥५५८