पृष्ठ:संक्षिप्त रामस्वयंवर.djvu/११८

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१०२ रामस्वयंबर। (दोहा) घना कुंज लोनी लता फूले फूल अपार । लखे कुसुम तारत तहाँ सुंदर जुगल कुमार ॥ ५७२।। (सवैया) सांवरा सुंदर एक मनोहर दूसरी गौर किसोर सुखारी। का कहिये मिथिलेसलली वह मूरति पै मन है बलिहारी॥ श्रीरघुराज पनै नहिं मापत राखत ही में बनै छवि प्यारी। नैन यिना रसना, रसना विन नैन कहौ किमि जाय उचारी ।। सुनिकै विमलावतियां सिगरी हरषी सुसखी निरखौ सिय को। उतकंठित बेस बिलोकन को कव आनंद औध भरों जिय को॥ रघुराज सखीन समाज निहारति को कहै सीय गुनो हिय को। अवलोकन की अभिलाष उठी पिय छोड़ि उतै हठि होश्य को॥ (दोहा) पुनि नारद के बचन की सुघि आई तिहि काल । दुसह यिरह दारुन व्यथा जान्यो मिटिहैं हाल ॥५७५॥ जनकलली सजनीन की जानि उदित अभिलाख । पाय मोद मुसक्यानि मन गहि तमाल की साख ॥५७६॥ पल्लव डार विलोकि कछु कुज विलोकन व्याज । चलीचारि पद और तिहि चितवतसखिन समाज ॥५७॥ (चौपाई) . . करति सखिन सों बातें । लषन लाल लालसा अघातें ।। प्रगटति नहिं भाजाखग मृग निरखति करति दुराज