रामस्वयंबर। चंद्रकला के बचन सुनि मातु-भीति उर आनि । चली पलटि पग जानकी गूढ़ गिरा जिय जानि ॥५२॥
देखै बहोरि बहारि कुरंगन त्योंही विहंगन भृगन सीता। ता मिसि राजकुमार विलोकति होत अघाउ न चिस पुनीता। लालच लागी बिलोकन को इत त्यों उत है जननो ते सभीता। खेलतचंग से चित्त चलोज्यों बंधो रघुराज के प्रेम के फीता॥५६३॥
गौरि-गेह गवनी जव सीता । प्रभु कह लषनहिं बचन पुनोता। लखी लला मिथिलेसकुमारो। हम तो अस नहिं सुचि निहारी॥ फाल्हि स्वयंवर होवनहारा । धौं केहि देव सुजस परतारा, सुनत लपन बोले मृदु वानी । रीति हमारिनाथ असि जानी। जहां रहत कोऊ रघुबंसी। तहं न हात दुसरो प्रसंसी ॥ लपनवचन सुनि मृदु मुसकाई । राम कहो बेला बडि आई ॥ तारि प्रसून चुके भरि दोना । चलहु काल्हि होई जो होना ॥ अस कहि चले गुरू पहँ रामा। हिय बरनत सियछवि अभिरामा
गुरु समीप सुम-दोन दोड, धरि पंद कियो प्रनाम.। . . फौसिक कहो बिलंब करि, किमि आये इत राम ॥५६८॥
धरि धनुबान जारि पानि वानियोले राम सरल स्वभाष छल छंद ना छुआन है । गये मिथिलेस फूलवाटिका में फूल-हेत फूलन के