पृष्ठ:संक्षिप्त रामस्वयंवर.djvu/१४०

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रामस्वयंबर। (दोहा) राम-रूप नख सिख निरखि अनिमिष नयन लगाय। रहो ठमकि मन अचल करि देह दसा बिसराय ॥७२२॥ (सवैया) दोऊ निमेपन नेवर जानिकै नयनन.ते करि दोन्ही विदाई। प्रीति के पास में दोऊ फंसे पदकंज दोऊ के गहे विरताई। लाज को काज अकाज भयो रघुराज उछाह को भै अधिकाई । राम को भूलि गयो धनु-मंगसिया पहिरावन माल भुलाई॥७२३॥ अंगुली सो गहि अंगुली कोमल मंजु अली सुख सों मुसक्याई । मंजुल यानी कही सुखसानी सुनेसुक नयनन सैन चलाई ॥ आई इतै पहिरावन को जयमाल बिसाल रसाल तुराई। सो पहिराय चलो रघुराज लदा निरख्यो यह सुंदरताई।७२४३ मंजुल जुक्ति भरे सखी वैन सुने सिय नेसुक नैन नशाई । नेसुकही सखि ओर लखी मुसक्याइकै मंदाहि मंद लजाई ॥ मंदाहि मंद उमै कर सो रघुराज चित जयमाल उठाई । चासवचापके वीच मना चपला चमकै घनस्याम निराई॥७२५॥ आली गिरा सुनिक ससाली चहै पहिरावन को जयमालै । सीय विचारै मनै मनही में परी परिपूरन प्रेम के जाले ॥ कोमल श्रीरघुराज के संग कोर महा कुसुमानि की माले । हाय कहूँ गडिजाय गरे पछिताय रही हिय पाय कसाल।७२६॥