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पृष्ठ:संक्षिप्त रामस्वयंवर.djvu/१४१

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'रामस्वयंघर। १२५ ' (सेरठा) तह चिलंय जिय आनि मंद मंद बोले लपन । अय अनुग्रह-खानि बितत मुहरत अति सुखद ॥७२७॥ सिय सुनि देवर वैन सकुचि रची रति राम के। लखि लषनै भरि नैन द्रत जयमाल उठाय कर ७२०॥ दई प्रभुहि पहिगय विविध रंग जयमाल गल । से छवि कही न जाय मर्कत गिरि मनु धनु उयो।७२६॥ (दोहा) राम गले जयमाल ललि भे सब लोग निहाल । माच्या जयजयकार तहं चार बार तिहि काल ||७३०॥ (छन्द हरिगीतिका) भानी महीपति तुरत तमके तेग चमके पानि में। नहिं जके आपुस महं के सिय तके दीठि लुभानि में । हमरे सुअच्छ प्रत्यच्छ देखत कौन कुपरि विवाहिहैं। लच्छन विपच्छ विपच्छ करि रनसिंधुको अवगाहिहैं।७३१॥ (चौपाई) नपन-बचन सुनिलपन रिसाने । फरकि उठे भुज नयनललाने ।। दंतन दरत अधर लै श्वासू । वोलि सकत नहिं रघुपति-त्रासू ॥ खरभर होत सखी डरपानी। राम लपन लखि लिय मुसक्यानी ।। सायुध सखी खड़ी बढ़ि आगे । कहहिं भूप का करत अभागे॥ प्रथम हतव हमहीं हथियारन । समर कौनकरिसकै निवारन॥ प्रगटत लछमन कोप कराला । रामकह्यो हँसि बचन विसाला