पृष्ठ:संक्षिप्त रामस्वयंवर.djvu/१४२

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रामस्वयंदर। . अजा महिपखरलखिपंचानन । सुन्यो न कोप करत कहुं कानन। राम-वचन सुनि लपन लजाने । लखन लगे महि मृदु मुसुक्याने गगन गिरा भइ राजन काहीं । निज निजभवन भूप सब जाहीं॥ जो कुचालि करिहै यहि ठोरा । हनिह तिन्हें जच्छ चरजोरा ।। मिट्यो कोलाहल गे जब भूपा।माच्यो मंगल, सोर अनूपा ।। मनहीमन पद चंदन करिकै । सांवलि मूरति हिय,मह धरिकै। चली सीय जननी ढिग काहीं ! गावत मंगल सखी सुहाहीं ॥ तिहि अवसर विदेह तहं आये। विश्वामित्र चरन सिरनाये ॥ जोरि कमल कर कह्यो विदेह । तुव प्रसाद मिटिगो संदेहू ।। अब आगे जस सासन देह । करौं तीन विधिविन संदेहू ।। सुनत विदेह वचन सुखदाई । वोले विहसि वचन मुनिराई ॥ जान सकल रीति मिथिलेसू । का हमसों अव लेहु निदेस। तदपि उचित जस मोहि दिखाई। पूछे ते अच देत सुनाई ॥ पठनहुँ चारि चार के हाथा । सुनत होइ रघुवंस सनाथा ॥ .इतै करहु सव व्याह तयारी | तुम लमान दोउ भूपति भारी॥ लै बरात आवै नरनाहा । करैं उछाहित राम विवाहा ॥ .. .. (दोहा) . करहु जाय मिथिलेस अव जथा वंस व्यवहार। जथा वेदविधि लोकविधि होइ सुखी संसार ॥ ७४३ ॥ राम-लपन-संयुत इतै ऋषि सुखसिंधु नहाय । कीन्यो बास निवास चलि भये अस्त दिनराय ॥४४॥